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पट्टपर बैठनेवाले आचार्योंमें चतुर्थ आते हैं और इनका समय वीर निर्वाण सं०५७१ सिद्ध होता है । अतएव गडपिच्छके गुरुका नाम कुन्दकुन्दाचार्य होना चाहिये। श्रवणवेलगोलाके अभिलेख न० १०८ में गद्धपिच्छ उमास्वामिका शिष्य बलाकपिच्छाचार्यको बसलाया है । अत: इनके शिष्य बलाकपिच्छ हैं।
सत्त्वार्थसूत्रके निर्माणमें कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंका सर्वाधिक उपयोग किया गया है | आचार्य कुन्दकुन्द बापोवास्तिकाय में द्राका नासाडगे जिया है
दब्वं सल्लवखणियं उपादन्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भणति सव्वण्हू' ।। इस गाथाके आधारपर तत्त्वार्थसूत्र में तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं। ये तीनों सूत्र क्रमशः गाथाके प्रथम, द्वितीय और तृतीय पाद हैं
(१) सद्व्यलक्षणम्। (२) उत्पादव्ययधोव्ययुक्तं सत् । (३) गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ।
अतएव गपिन्छने कुन्दकुन्दका शाब्दिक और वस्तुगत अनुसरण किया है । अतः आश्चर्य नहीं कि गृद्धपिच्छके गुरु कुन्दकुन्द रहे हों । श्रवणबेलगोलाके उक्त अभिलेखानुसार गृद्धपिच्छके शिष्य बलापिच्छ हैं। इनकी गणना नन्दिसंघके आचार्योंमें है।
यद्यपि पंडित सुखलालजीने इन्हें ही तत्वार्थाधिगमभाष्यका कर्ता मानकर उच्च गर शाखाका आचार्य माना है और यह शाखा कल्पसूत्रको स्थविरावलिके अनुसार आर्यशान्तिश्रेणिकसे निकली है । आर्यशान्तिधेणिक आर्यसुहस्तिसे चौथी पीढ़ीमें आते हैं, तथा वह शान्तिश्चेणिक आर्यवनके गुरु आसिहगिरिके गुरुभाई होनेसे, आर्यवनकी पहली पीढ़ीमें आते हैं। तत्वार्थाधिगमभाष्यकी प्रशस्तिमें वाचक उमास्वासिने अपनेको शिवश्रीनामक वाचकमुख्यका प्रशिष्य और एकादशांगवेत्ता घोषनन्दि श्रमणका दीक्षा शिष्य तथा प्रसिद्धकीर्तिवाले महावाचक श्रमण श्रीमुण्डपादका विद्या-प्रशिष्य बतलाया है।
पर यह गुरुशिष्य-परम्परा तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार वाचक उमास्वातिको
१. पंचास्तिकाय, गापा १० २. तत्त्वार्थसूत्र ५।२९ ३. वही ५.३० ४. वही ५३८
भूतषर मोर सारस्वताचार्य : १५१