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यंको अत्यन्त प्रभावक आचार्य बताया गया है। कहा गया है कि सम्पूर्ण संसाररूप कमलवनको विकसित करनेमें सूर्यके समान तपस्याको छविसे उत्पन्न प्रभा द्वारा सभी दिशाओंके अन्धकारको दूर करने वाले सिद्धान्त-समुद्रको वद्धि में चन्द्रमास्वरूप, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिए सयंतुल्य, परवादियोंके सिद्धान्तरूपी गजके मस्तकको विदीर्ण करनेमें सिंहके समान श्रीलोसायद, प्रभाव, भिवान, मानुनन्दि और शिहनन्दि योगीन्द्र हुए। ___ इस सन्दर्भ में आये हुए सिंहनन्दि पूर्वोक्त गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दिसे अभिन्न हों, तो उनकी विद्वत्ता जगत्प्रसिद्ध प्रतीत होती है। इस विरुदावली में पूज्यपाद, गुणनन्दि, बच्चनन्दि और कुमारनन्दिके पश्चात सिंहनन्दिका उल्लेख आया है। अतः बहत सम्भव है कि यह सिंहनन्दि गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दि ही हैं । ये आगम, तर्क, राजनीति और व्याकरण शास्त्र आदि विषयोंके ज्ञाता थे 1 इनका समय ई० सनकी द्वितीय शताब्दी है।
उपर्युक्त उल्लेखोंसे विदित है कि गंगवंश-संस्थापक सिंहन्दि राजनीतिके साथ आगम-शास्त्रके भी शाता थे। अतः असम्भव नहीं कि इनकी रचनाएं भी रही हों, जो आज उपलब्ध नहीं।
आचार्य सुमति आचार्य सुमतिदेवका उल्लेख सन्मति-टीकाकारके रूपमें पाया जाता है। आचार्य वादिराजने अपने पार्श्वनाषचरितमें सुमतिदेवका निम्नप्रकार उल्लेख किया है
नमः सन्मतये तस्मै भव-कूप-निपातिनाम् ।
सन्मतिविवृता येन सुखधाम-प्रवेशिनी ।।१।२२।। आचार्य टुगलकिशोर मुख्तारने अनुमान किया है कि सुमतिदेवकी यह टोका ११वीं शताब्दीके श्वेताम्बराचार्य अभयदेवको टीकासे लगभग तीन शताब्दी पहलेको होनी चाहिये।
इन आचार्य और उनके सिद्धान्तका उल्लेख तत्त्वसंग्रहमें प्रत्यक्षलक्षणसमीक्षा सन्दर्भमें तत्वसंग्रहकार और उनके शिष्य कमलशीलने भी किया है"नन्वित्यादिना प्रथमे हेती सुमतेदिगम्बरस्य मतेनासिद्धतामाशते । स हि सामान्यविशेषात्मकत्वेनोभयरूपं सर्व वस्तु वर्गयति । सामान्यं च द्विरूपम्....." १. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाम ९, किरण २, पृ० ११०।। २. पुरातन जैनवाक्पसूनी, वीर सेवा मन्दिर, प्रथम संस्करण, प्रस्तावना, १२१ । ४४६ : तीर्थंकर महावीर और वनको आचार्य परम्परा