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० सं० पंजिका, का० १२६४ | "अत्र किल तेनैव सुमतिना स्वयमाशङ्कय सामान्येन हेतोरनैकान्तिकत्वं परिहृतम् तदेवादर्शयति- निविशेषमित्यादि । " (त० सं० का ० १२७५) ।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेख - संख्या ५४में भी सुमतिदेवका उल्लेख आया है | यह अभिलेख शक संवत् १०५०का है । यथा
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सुमति-देवममुं स्तुतयेन वस्सुमति-सप्तकमाप्ततया कृतं 1 परिहृतापथतत्त्व- पथात्थिनां सुमति-कोटि- दिवसभवात्तिहृत् ॥ इस पद्यसे स्पष्ट है कि सुमतिदेव अच्छे प्रभावशाली वार्षिक हुए हैं, जिनका स्थितिकाल ८वीं शताब्दी के लगभग रहा है । तत्त्वसंग्रह और शिलालेख के उल्लेख बतलाते हैं कि आचार्य सुमतिदेव प्रमाण और नयके विशिष्ट विद्वान् हैं। तार्किकके रूपमें इनकी ख्याति ८वीं वीं शताब्दी में पूर्णतया व्याप्त रही है । आचार्य कुमारनन्दि
आज कुमारनन्दिकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है । पर उनके तथा उनके ग्रन्थ के उल्लेख कई स्थानोंपर प्राप्त होते हैं | आचार्य विद्यानन्दने अपने ग्रन्थ प्रमाण-परीक्षा, पत्र परीक्षा और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें कुमारनन्दिका उल्लेख किया है । प्रमाण-परीक्षा में लिखा है
तथा चाभ्यधायि कुमारनन्दिभट्टारक:अन्यथानुपपत्येक लक्षणं लिङ्गमंग्यते । प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः ॥ २
पत्रपरीक्षामें कुमारनन्दि और उनके 'वदन्याय' ग्रन्थ दोनोंका भी उल्लेख प्राप्त होता है । लिखा है
तथैव हि कुमारनन्दिभट्टारकेरपि स्ववादन्याये निगदितत्वात् ।
तदाह
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प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा । प्रतिज्ञा प्रोच्यते तांस्तथोदाहरणादिकम् ॥ अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते । प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोषतः ॥
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१. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ५४, पद्य १३ ।
२. प्रमाणपरीक्षा, पृ० ३ ।
३. पत्रपरीक्षा, पृ० ३ ।
घर और सारस्वताचार्य : ४४७