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धर्मानुप्रेक्षामें धर्मका यथार्थ स्वरूप अतीन्द्रिय बतलाया है। धर्मका वास्तविक रूप सर्वज्ञता है । सर्वज्ञसाके, अस्तित्वमें किसीप्रकारका सन्देह नहीं किया जा सकता है । इस धर्मानुप्रेक्षामें कर्मबन्धके चक्रवालका भी विश्लेषण बाया है। बताया गया है कि संशव सब प्रव्या, कान, काल भायोंको अवस्थाबोंको जानते हैं। सर्वज्ञके ज्ञानमें सब कुछ प्रकाशित होता है। उनके शानमें जिस प्रकारके पदार्थोकी पर्यायें प्रतिविम्बित होती हैं, उन पर्याय जन्य फल वैसा हो घटित होता है। उसमें कोई किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं कर सकता है। निम्न दोनों गायाओंसे पर्यायोंकी नियत स्थिति सिद्ध होती है
जं जस्स जम्मि देसे, जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । जादं जिणेण णियदं, बम्म वा अहव मरणं वा ॥ तं तस्स तम्मि देते, तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि ।
को सक्कदि वारेवु, ईदा वा मह जिणिदो वा ।' जो जिस जोवके जिस देशमें, जिस कालमें, जिस विधानसे जन्म-मरण, दुःख-सुख, रोग-दारिद्र आदि सर्वज्ञदेवके द्वारा जाने गये हैं, वे नियमसे ही उस प्राणोको उसी देशमें, उसी काल में और उसो विधानसे प्राप्त होते हैं। इन्द्र, जिनेन्द्र या तीर्थंकरदेव अन्य कोई भो उसका निवारण नहीं कर सकते । इस प्रकारके निश्चयसे सब द्रव्य, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों
और इनकी समस्त पर्यायोंका जो श्रद्धान करता है, वह शुद्ध सम्यकदष्ट है। यह स्मरणीय है कि जीव मिथ्यात्वकर्मके, उपशम, क्षयोपशम या क्षयके बिना तत्त्वार्थको ग्रहण नहीं कर पाता । इसप्रकार धर्मानुप्रेक्षामें व्यवहारधर्म और निश्चयधर्मका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है ।
१८६ गाथाओंमें इस अनुप्रेक्षाका वर्णन आया है । अनशनादि बारह तप भी इसी वर्णनसंदर्भ में समाविष्ट हैं। बारह व्रतोंके निरूपणमें गुणवतों और शिक्षाव्रतोंका क्रम दही है, जो कुन्दकुन्दके 'चारित्रपाङड में पाया जाता है । मेद केवल इतना ही है कि अन्तिम शिक्षावत संल्लेखना नहीं, किंतु देशावकाशिक ग्रहण किया गया है। यह गुणवतों और शिक्षाघ्र तोकी व्यवस्था तत्त्वार्थसूत्रसे संख्याक्रममें भिन्न है, और श्रावकप्राप्तिको व्यवस्थाके तुल्य है।
इस प्रकार धर्मानुप्रेक्षामें तपों और व्रतोंका विस्तारपूर्वक कथन आया है। श्रावकधर्म और मुनिधर्मको संक्षेपमें अवगत करने के लिए यह ग्रन्थ उपयोगी है।
१. स्वामिकुमार, द्वावशानुप्रेक्षा, गाथा ३२१, ३२२।
१४४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा