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पलरूं सिद्धसाध्यर् आगे तत्"...."यंमं सहनगणं माठि समन्तभद्र-स्वामिगलु सन्दर......''
इन आभलेखोंते इतना ही निष्कर्ष निकलता है कि समन्तभद्र श्रुतघरोंकी परम्पराके आचार्य थे | इन्हें जो श्रुतपरम्परा प्राप्त हुई थी, उस श्रुतपरम्पराको इन्होंने बहुत ही वृद्धिंगत किया । __विक्रमकी १४ वीं शताब्दीके विद्वान् कवि हस्तिमल्ल और 'अय्यप्पायने' 'श्रीमलसंघश्योमनेन्दु विशेषण द्वारा इनको मूलसंघरूपी आकाशका चन्दमा बताया है । इससे स्पष्ट है कि समन्तभद्र मूलधक आचार्य छ ।
श्रवणबेलगोलके अभिलेखोंसे ज्ञात होता है कि भद्रबाह श्रुतकेवलोके शिष्य चन्द्रगुप्त, चन्द्रगुप्त मुनिके वंशज पयनन्दि अपरनाम कुन्दकुन्द मुनिराज, उनके वंशज गद्धपिच्छाचार्य और गद्धपिच्छके शिष्य बलाफपिच्छाचार्य और उनके वंशज समन्तभद्र हुए । अभिलेखमें बताया है
"श्रीगद्धपिच्छ-मुनिपस्य बलाफपिच्छ: शिष्योजनिऽष्टभुवनत्रयत्तिकोतिः । चारित्रचञ्चुरखिलावनिपाल-मौलि.
माला-शिलीमुख-विराजितपादपप्रः॥ एवं महाचार्यपरम्परायां स्यात्कारमुद्राङ्किततत्त्वदोपः ।
भद्रस्समन्ताद्गुणतो गणोशस्समन्तभद्रोनि वादिसिंहः ।।" इन पद्योंसे विदित है कि समन्तभद्र कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छाचार्य आदि महान् आचार्योंकी परम्रामें हुए थे।
सेनगणको पट्टावलिमें समन्तभद्रको सेनगणका आचार्य सूचित किया है। यद्यपि इस पट्टा में आचार्योकी नामबद्ध परम्परा अंकित नहीं की गयो है, तो भी इतना स्पष्ट है कि समन्तभद्रको उसमें सेनगणका आचार्य परिगणित किया है।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेख नं० १०८ में नन्दि, सेन आदि चार प्रकारके संघभेदका भट्टाकलंकदेवके स्वर्गारोहणके पश्चात् उल्लेख है। परन्तु समन्तभद्र अकलंकदेवसे बहुत पहले हो चुके हैं । अकलंकदेवसे पहलेके साहित्यमें इन चार प्रकारके गणों। कोई उल्लेख भी दिखलाई नहीं पड़ता है। यद्यपि इन्द्रनन्दिके श्रतावतार एवं अभिलेखनं०५०५में इन चारोंसोका प्रवर्तक अहंदबलि आचार्यको १. बेलूर तालुकेका कन्नड़ी अभिलेख न०-१७ । २. जैन शिलालस सग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ४०, पच ८-९, १० २५ । ३. जैन सिद्धान्त भास्कर, १५१, जम सिद्धान्त भवन, मारा।
१८० : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्ग-परम्पग