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मैंने पहले पाटलिपुत्र नगरमें वादको भेरी बजाई। पुनः मालवा, सिन्ध देश, उनक-ढाका(बंगाल), काञ्चीपुर और वैदिश-विदिशा-भेलसाके आसपासके प्रदेशोंमें भेरो बाई । अब बड़े-बड़े वीरोंसे युक्त इस करहाटक-कराड़, जिला सतारा, नगरको प्राप्त हुआ हूँ । इस प्रकार हे राजन् ! मैं वाद करनेके लिए सिंहके समान इतस्ततः कोड़ा करता फिरता हूँ।
राजा शिवकोटिको समन्तभद्रका चमत्कारक उक्त आख्यान सुनकर विरक्ति हो गयी और वह अपने पुत्र श्रीकण्ठको राज्य देकर प्रबजित हो गया । समन्तभद्रने भी गुरुके पास जाकर प्रायश्चित्त ले पुनः दीक्षा ग्रहण की।
ब्रह्म नेमिदत्तके आराधनाकथा-कोषकी उक्त कथा प्रभाचन्द्र के गद्यात्मक लिखे गये कथाकोषके आधारपर लिखी गयी है। बुद्धिवादीकी दृष्टिसे उक्त कथाका परीक्षण करनेपर समस्त तथ्य बुद्धिसंगत प्रतीत नहीं होते हैं, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि समन्तभद्रको मस्मक व्याधि हुई थी और उसका शमन किसी शिवकोटिनामक राजाके शिवालयमें जानेपर हआ था। हमारा अनुमान है कि यह घटना दक्षिण काशी अर्थात् काञ्चीकी होनी चाहिए। गुरु-शिष्यपरम्परा ___ समन्तभद्रको गुरु-शिष्यपरम्पराके सम्बन्धमें अभी तक निर्णीत रूपसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। समस्त जन वामय में समन्तभद्रके सम्बन्धमें प्रशंसात्मक उक्तियाँ मिलती हैं। समन्तभद्र वर्धमान स्वामीके तीर्थको सहस्रगनी वृद्धि करने वाले हुए और इन्हें श्रुतकेचलिऋद्धि प्राप्त थी। चन्नरायपट्टण ताल्लुकेके अभिलेख न० १४९में श्रुतकेवलो-संतानको उन्नत करने वाले समन्तभद्र बताये गये हैं
"श्रुतकेवलिगलु पलवरून अतीतर् आद् इम्बलिक्के तत्सन्तानोन्नतियं समन्तभद्
वृत्तिपर बलेन्दरू समस्तविद्यानिधिगल ।' यह अभिलेख शक संवत् १०४७का है। इसमें समन्तभद्रको श्रुतकेलियोंके समान कहा गया है | एक अभिलेखमें बताया है कि श्रुतकेलियों और अन्य आचार्यों के पश्चात् समन्तभद्रस्वामी श्रीवर्धमानस्वामीके तीर्थकी सहस्रगणी वृद्धि करते हुए अभ्युदयको प्राप्त हुए। ___ "श्रीवईमानस्वामिगलु तीर्थदोलु केवलिगलु ऋविप्राप्तरूं श्रुतकेलिगलं १. एफियाफिया कणाटिका, पंचम सिल्व, अभिलेखन नं.-१४९।
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : १५९