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ईर्ष्यावश समन्तभद्रकी देखरेख को और राजाको सूचना दी कि तथाकथित योगि शिवको नेवेद्य न ग्रहण कराकर स्वयं नेवेद्य ग्रहण कर लेता है। राजाके आदेश:नसार एक दिन समन्तभद्रको भोजन करते हए पकड़ लिया गया और उनसे शिववो नमस्कार करनेके लिए कहा। समन्तभद्रने उत्तर दिया. "रागीद्वेषी देव मेरे नमस्कारको सहन नहीं कर सकता है। राजाने आशा दी कि अपना सामथ्यं दिखलाकर स्ववचनको सिद्ध करो।
राश्मेिं समन्तभद्रको बचन-निर्वाहको चिन्ता हुई, क्योंकि प्रातःकाल ही सनको अपनी परीक्षामें उत्तीर्ण होना था । उनको चिन्ताके कारण अम्बिका देवीका आसन कम्पित हुआ और वह दौड़कर समन्तभद्रके समक्ष उपस्थित हुई और उन्हें आश्वासन दिया । प्रात:काल होनेपर अपार भीड़ एकत्र हुई और समन्तभद्ने अपना स्वयंभूस्तोत्र आरम्भ किया। जिस समय वे चन्द्रप्रभ भगवानको स्तुति करते हुए 'तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नम्' यह वाक्य पढ़ रहे थे, उसी समय वह शिवलिङ्ग खण्ड-खण्ड हो गया और उसके स्थानपर चन्द्रप्रम भगवानको चतुमुखी प्रतिमा प्रकट हुई। गजा शिवकोटि समन्तभद्रके इस महत्वको देखकर आश्चर्यचकित हो गया और उसने समन्तभद्रसे उनका परिचय पूछा । समन्तभको उत्तर मैले हुए कहा-..
"काच्या भग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुलाम्बशे पाण्डुपिण्डः । पुण्ड्रेण्डे शायभिक्षुर्दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिवाट् ।। बाराणस्यामभूवं शशकरधवल; पाण्डुराङ्गस्तपस्वी।
राजन् यस्थास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी॥" मैं काञ्चीमें नग्नदिगम्बर यत्तिके रूपमें रहा, शरीरमें रोग होनेपर पुण्डनगगेमें बौद्ध भिक्षु बनकर मैंने निवास किया 1 पश्चात् दशपुर नगरमें मिष्टान्नभोजो परिवाजक बनकर रहा । अनन्तर वाराणसीमें आकर शेव तपस्वी बना। हे राजन् ! मैं जैननिन्थवादी-स्याद्वादी हूँ । यहाँ जिसकी शक्ति वाद करनेकी हो वह मेरे सम्मुख आफर वाद करे । द्वितीय पद्यमें आया है--
पुर्ण पाटलिपुत्र-मध्य-नगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये काञ्चीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटक बहुभटं विद्योत्कटं सलूट
वादार्थी विचराम्यहानरपते शाई लविक्रीडितम् ॥ १. विदरनमाला, पु. १६६ । २. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या-५४, पच-७, १० १०२ । १७८ : सीर्थकर महावीर बोर उमको आचार्य-परम्परा