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भी बताया गया है कि शिवकोधि महाराजने जिनदीक्षा भी धारण की थी।
ब्रह्मनेमिदत्तने शिबकोटिको काञ्चो अथवा नव तैलङ्ग देशका राजा न लिखकर वाराणसीका राजा लिखा है | भारतीय इतिहासके आलोडनसे न तो काशीके शिवकोटि राजाकर ही उल्लेख मिलता है और न काञ्चीके ही।
प्रो० ए० चक्रवर्तीने पञ्चास्तिकायकी अपनी अंग्रेजी प्रस्तावनामें बताया है कि काञ्चीका एक पल्लवराजा शिवस्कन्ध वर्मा था, जिसने 'मायदाबोल' का दान-पत्र लिखाया है । इस राजाका समय विष्णगोपसे पूर्व प्रथम शताब्दी ईस्वी है। यदि यही शिवकोटि रहा हो, तो समन्तभद्रके साथ इसका सम्बन्ध घटित हो सकता है। 'राजाबाल कथे', पट्टावलि, एवं श्रवणबेलगोलाके अभिलेखमें शिवकोटिका निर्देश जिस रूपमें किया गया है उस रूपक अध्ययनसे उसके अस्तित्वसे इंकार नहीं किया जा सकता है।
ब्रह्म नेमिदत्तने समन्तभद्रकी कथामें काशोका उल्लेख किया है। पर यह कुछ ठीक प्रतीत नहीं होता ! नाथाके ऐसे भी कुछ अंश हैं जो यथार्थ नहीं . मालम होते । कथामें आया है-'काञ्चोम उस समय भस्मक व्याधिको नाश करनेके लिए स्निग्ध भोजनोंको सम्प्राप्तिका अभाव था। अत: वे काञ्ची छोड़कर उत्तरकी ओर चल दिये। वे पुण्ड्डन्द्रनगरमें पहुंचे। यहाँ बौद्धोंको महती दानशाला देखकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुका रूप धारण किया । पर जब वहां भी महान्याधिका उपशम नहीं हुआ तो वे वहाँसे निकलकर अनेक नगरोंमें फूमते हुए दशपुर नगरमें पहुंचे । यहाँ भागवतोंका उन्नत मठ देखकर वे विशिष्ट आहारप्राप्तिकी इच्छासे बौद्ध भिक्षका वेष त्याग वैष्णव संन्यासी बन गये । यहाँके विशिष्ट आहार द्वारा भी जब उनकी भस्मक व्याधि शान्त न हुई, तो वे नाना देशों में घमते हुए वाराणसी पहुंचे और वहीं उन्होंने योगि-
लिङ्ग धारण करके शिवकोटि राजाके शिवालयमें प्रवेश किया। यहां घी-दृध-दही-मिष्टान्न बादिनाना प्रकारके नैवेद्य शिवके भोगके लिए तैयार किये जाते थे। समन्तभदने शिवकोटि राजासे निवेदन किया कि वे अपनी दिव्यशक्ति द्वारा समस्त नेवैद्यको शिवको खिला सकते हैं। राजाका आदेश प्राप्त कर समन्तभद्रने मन्दिरके कपाट बन्द कर समस्त नेवेद्य स्वयं ग्रहण किया और आचमनके पश्चात् किवाड़ खोल दिये । राजा शिवकोटिको महान आश्चर्य हा कि मनोंकी परिमाणमें उपस्थित किया गया नैवेद्य साक्षात् शिवने ही अवतरित होकर ग्रहण किया है। योगिराजकी शक्ति अपूर्व है, अतएव उनको शिवालयका प्रधान पुरोहित नियुक्त किया । समन्तभद्र प्रतिदिन नेवेद्य प्राप्त करने लगे और शनैः शनैः उनको मस्मक व्याधि शान्त होने लगी। मन्दिरके प्रमुख पुरोहितोंने
भूतघर और सारस्थतापार्य : १७७
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