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पात्रकेसरिस्तोत्रके अध्ययनसे इनकी प्रतिभा और वैदुष्यका सहजमें परिज्ञान प्राप्त हो जाता है। कविने परस्मैपदी क्रियाओंके स्थानमें संविधास्ये, संगच्छते, विरुध्यते', अश्नुते , उपपद्यते५. परिपूज्यते', नरीनृत्यते , विद्यते', उहते, छिद्यते', युज्यते", अनुषज्यते'२. गम्यते । एवं चेष्टते" आदि आत्मनेपदी क्रियापद प्रयुक्त किये हैं ! इन क्रियापदोंसे यह अनुमान होता है कि आचार्य पात्रकेसरी विविध वादोंकी समीक्षा कर स्वमतकी स्थापना करना चाहते हैं। यतः आत्मनेपदो क्रियाएँ 'स्व'को अभिव्यंजनाके लिये आती हैं। जहां स्तोत्रोंमें स्तोता अपने हृदयको खोलकर रख देता है और अपने समस्त दोष और आवरणोंको स्वीकार करता है वहां आत्मनेपदो क्रियाओंका व्यवहार किया जाता है। परस्मैपदी क्रियाए परस्मै-परार्थ-परबोधक पदम्' अर्थात् जहाँ परका भाव अभिव्यक्त करना होता है वहां प्रायः परस्मैपदी क्रियाओंका व्यवहार किया जाता है।
जो कवि या लेखक सावधान रहकर रचना करता है वह परस्मैपदी और आत्मनेपदी क्रियाओंके भेदोंपर ध्यान रखता है। सामान्यत: जहाँ 'स्व' और 'पर'का मिश्रित भाव अभिव्यक्त करना होता है वहाँ आत्मनेपदी क्रियाएं व्यवहारमें आती है।
आचार्य पात्रस्वामीका न्यायविषयपर भी अपूर्व अधिकार है। उनके विलक्षणफदर्थनके न मिलनेपर भी उसके वानपोंके ग्रन्थान्तरोंमें उपलब्ध होने लथा उपयुक्त स्तोत्रसे न्याविषयक परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । यहाँ स्तोत्रमे उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत है--
न हीन्द्रियधिया विरोधि न च लिंगबुळ्या वचो,
न चाप्यनुमतेन ते सुनयसप्तधा योजितम् । व्यपेतपरिशङ्कन वितथकारणादर्शनादतोऽपि भगव॑स्त्वमेव परमेष्टितायाः पदम्॥
आचार्य जोइंदु जैन परम्परामें 'जोइंदु या 'योगीन्दु' एक अध्यात्मवेत्ता आचार्य हैं। इनके जीवन-वृत्तके सम्बन्धमें न तो इनके ग्रन्थोंसे सामग्री उपलब्ध होती है और न अन्य वाङ्मयसे ही । परमात्मप्रकाशमें कविने अपने नामका उल्लेख किया है १-१४. पात्रकेसरिस्तोत्र-१, ६, १३, २२, २२, २९, २९, ३१, ३२, ३४, ३४,
३६, ४४, ४८ पद्य । १५. वाही, पद्य ११ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २४३