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और अपने शिष्यका नाम भट्टप्रभाकर बताया है। पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करनेके पश्चात् भट्टप्रभाकरने जिनदेव और योगोन्दुले निर्मल परिणामोंकी प्राप्ति हेतु प्रार्थना की है । यथा
भावि पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु - जिणाउ । भट्टपहार विविउ विमलु करेविणु भाउ' ।
शुद्धभावसे पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार कर भट्टप्रभाकर अपने परिणामोंको निर्मल करनेके हेतु योगीन्दुदेवसे शुद्धात्मतत्व जानने के लिए महाभक्ति से प्रार्थना करता है ।
परमात्मप्रकाशके टीकाकार ब्रह्मदेवने अपनी संस्कृतटीकामें "जोइंदुजिणाउ" का अर्थ योगीन्द्रदेवनामा भगवान् किया है । समयसारकी टीका में जयसेनने 'तथा योगीन्दुदेवैरप्युक्तम्' कहकर परमात्मप्रकाशका निम्नलिखित दोहा उद्धृत किया है
" ण वि उपज ण कि मरइ बघु भोक्यु करंड जिस परमत्थे जोइया जिणवरु एउ भणेइ ॥
श्रुतसागरसूरिने कुन्दकुन्दके 'चरितपाहुड' की टीका में 'उक्तञ्च योगीन्द्रनामाभट्टारकेण' लिखकर परमात्मप्रकाशके निम्नलिखित पद्यको प्रस्तुत किया है
जसु हरिणच्छी हियवइए तसु ण वि बंभु विधारि । एक्कहि केम समति वढ बे खंडा पडियारि ॥
इस प्रकार संस्कृत टीकाकारोंने जोइंदुको योगीन्दु नामसे अभिहित किया है और इसो नामसे ये प्रसिद्ध भी हुए हैं। योगसार में ग्रन्थकर्ताका नाम योगिचन्द बताया है, जो कि जोइंदुका रूपान्तर है
संसारह भय-भीयएण जोगिचंद - मुणिएण | अप्पा - संबोण कया दोहा इवक मणेण " |
योगीन्दु योगिचन्द्रका रूपान्तर है और इसका अपभ्रंशरूप जोइंदु है ।
१. परमात्मप्रकाश, रामचन्द्रशास्त्रमाला, दोहा ११८ | २. यही ११६८
३. कुन्कुन्द, चारितपाहुड-गाथा - १५ ।
४. परमात्मप्रकाश राय चन्द्रशास्त्रमाला, दोहा--- १।१२९ ।
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५. योगसार, रामचन्द्रशास्त्रमाला, दोहा-- १०८ ।
२४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी श्राचार्य - परम्परा
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