________________
प्रायः चन्द्रान्त नामोंको संक्षिप्त रूप देनेके लिए ग्रन्थकार 'इन्दु' द्वारा अभिहित करते हैं । यथा--प्रभा चन्द्रका प्रभेन्दु, शुभचन्द्रका शुभेन्दु हो गया है । इसीप्रकार योगिचन्द्रका योगीन्दु या जोइंदु हुआ है । अतएव डॉ० ए० एन० उपाका यह सुझाव सर्वथा उचित है कि परमात्मप्रकाशके रचयिताका नाम योगीन्द्र नहीं, योगीन्दु है ।
जीवन-परिचय
जोइंदु कविके जीवन सम्बन्धमें किसी भी साघनसे कोई प्रामाणिक सूचना प्राप्त नहीं होती है । परमात्मप्रकाश में बताया गया है कि यह ग्रन्थ भट्टप्रभा - करके निमित्तसे लिखा जा रहा है। यह बात परमात्मप्रकाशके आदि और अन्तसे भी सिद्ध होती है। मध्यमें भी कई स्थलों पर भट्ट प्रभाकरको सम्बोधन करते हुए कथन किया गया है । ग्रन्थकारने लिखा है
इत्थु ण व पंडियहि गुण-दोसु वि पुणरुसु । भट्ट - पभायर-कारणइँ मई पुणु वि परतु' |
अर्थात् हे भव्यजीवों ! इस ग्रन्थ में पुनरुक्त नामका दोष पण्डितजन ग्रहण नहीं करेंगे और न काव्यकलाको दृष्टिसे ही इसका परीक्षण करेंगे । यतः मैंने प्रभाकरभट्टको सम्बोधित करनेके लिए परमात्मतत्त्वका कथन किया है। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि भट्टप्रभाकर कोई मुमुक्षु था, जिसके लिए इस ग्रन्थका प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ मुल्यरूपसे मुनियोंको लक्ष्यकर लिखा गया है । और इसके लेखक भी अध्यात्म रसिक मुनि ही हैं । अन्तिम मङ्गलके लिए आशीर्वाद के रूपमें नमस्कार करते हुए लिखा है कि इस लोक में विषयी जीव जिसे नहीं पा सकते, ऐसा यह परमात्मतत्त्व जयवन्त हो । विषयासीत वीतरागी मुनि ही इस आत्मतस्वको प्राप्त कर सकते हैं। जो मुनि भावपूर्वक इस परमात्मप्रकाशका चिन्तन करते हैं वे समस्त मोहको जीतकर परमार्थके ज्ञाता होते हैं। अन्य जो भी भव्यजीव इस परमात्मप्रकाशको जानते है वे भी लोक और अलोकका प्रकाश करनेवाले ज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं । इस ग्रन्थ के पठन-पाठनका फल शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति है ।
उपर्युक्त कथन से इतना स्पष्ट ज्ञात होता है कि जोइंदु मुनि थे और इनका कोई मुमुक्षु शिष्य भट्टप्रभाकर था । इसीको सम्बोधित करने के लिए परमात्म: प्रकाशकी रचना की गयी है ।
१. परमात्मप्रकाश, रायनशास्त्र माला, दोहा - २।२११ ।
२. परमात्मप्रकाश - २२०४-२०५ ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : २४५