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विनोऽवयवो भिन्नो, विरोधात् । तदपि प्रमाण द्विविधं द्रव्यभावप्रमाणभेदात् । द्रव्यप्रमाणात् संख्येयासंख्येयानन्तात्मकद्रव्यजीवस्थानस्यावतारः । भावप्रमाण पञ्चविधम्-आर्भािणबोहियभावपमाणं सुदभावपमाणं मणपज्जबभावपमाण ओहिभावपमाण केवलभावपमाणं चेदि" । २. समाहारशक्ति __ शंका-समाधान द्वारा विषयका समन्वय और संक्षेपण करते हुए विविध भगका संयोजन करना समाहाराक्तिके अन्तर्गत है ।-टीकामें इस गुणके कारण अपने विषयको पुष्टिके लिए पूर्वाचार्यों द्वारा प्ररूपित गाथाओं और वाक्योंका 'उकञ्च' कहकर ऐसा उपन्यास किया है, जिससे उद्धृतांश विषयमें दूध-पानीकी तरह मिश्रित हो गये हैं । आचार्यकी यह समाहारशक्तिका हो परिणाम है। जिससे विस्तृत विवतिमें विभिन्न विषयोंका समावेश गंगा में समाविष्ट होनेवाली विभिन्न नदियोंके समान एक ही स्थान पर हुआ है और सभी विषय अन्तिम निष्कर्ष के रूपमें एक ही तथ्यको सम्मिलित रूपमे अभिव्यञ्जना करते हैं। यथा-"तद्व्यतिरिक्तं द्विविध कर्मनोकर्ममङ्गलभेदात् । तत्र कर्ममङ्गलं दर्शनविशुद्धयादि-बोडशधा-प्रविभक-तीर्थकर-नामकर्म-कारणीव-प्रदेश -निबद्ध-तीर्थकर-नामकर्म माङ्गल्य-निबन्धनवान्मङ्गलम् । यत्तनोकर्ममङ्गलं तद् द्विविधम्, लौकिक लोकोत्तरमिति । तत्र लौकिक विविधम्, सचित्तचित्तं मिश्रमिति । तत्राचित्तमङ्गलम्
सिद्धत्य-पुण्ण-कूमो वंदणमाला य मंगलं छत्तं ।
सेदो वण्णो भादंसणो य कण्णा य जच्चस्सो।। सचित्तमङ्गलम् । मिश्रमङ्गलं सालङ्कारकन्यादिः ।" तकं या न्यायशेली
न्यायको शैलीमें स्वयं नानाप्रकारके विकल्प उठाकर तटस्थभावसे विषयको प्रस्तुत करना और विषयके उपस्थापनमें सर्कका आश्रय लेकर निष्कर्ष निकालना आचार्य वीरसेनको अभीष्ट है। लोकिक और सैद्धान्तिक दोनों ही प्रकारके विषयोंके प्ररूपणमें उक्त प्रक्रियाको अपनाया गया है। यथा-"स्यादअस्तु वग्रहो निर्णयरूपो वा स्यादनिर्णयरूपो वा ? आधे अवायान्तर्भावः । चेन्न, ससः पश्चात्संशयोत्पत्तेरभावप्रसंगान्निर्णयस्य विपर्ययानध्यवसाय विरोधात् । अनिर्णयरूपश्च त्, संशयविपर्ययानध्यवसायेष्वन्तर्भावादिति ? न, १. भवसाटोका समन्वित षट्खण्डागम, पु. १, पृ. ९२-९३ । २. वही, पृ० १, पृ. २६-२७ ।
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : ३३३