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तिलोयपण्यत्तिके इस सन्दर्भसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्तका उल्लेख जिस प्रसंगमें आया है वह प्रसंग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। केवला और श्रुत. केवलियोंके मध्यमें चन्द्रगुप्सका निर्देश सामान्य नहीं है। अन्तिम केवलज्ञानी श्रीधर कुण्डलििरसे सिद्धिको प्राप्त हुए । चारणऋषियों में अन्तिम सुपाश्वंचन्द्र नामक ऋषि हए । अन्तिम प्रज्ञायमण वनयश और अन्तिम अवधिज्ञानो श्रीनामक ऋषि हुए । इसके पश्चात् मुकुटधरोंमें अन्तिम चन्द्रगुप्तने जिनदीक्षा ग्रहण को । चन्द्रगुप्तका निर्देश करनेवालो गाथाके पश्चात् श्रतकेवली भद्रबाहका नाम आया है । अतएव यह स्पष्ट है कि अन्तिम श्रुतकेवलो और मौयं चन्द्रगुप्त ये दोनों समकालीन हैं।
खारवेलके हाथी गम्फावाले अभिलेखकी सोलहवीं पंक्तिका जायसवाल साहबने अध्ययन कर लिखा है...-"जैन आगमोंके इतिहासके और अधिक गहरे अध्ययनसे हम निर्णय करने में समर्थ होंगे कि उक्त पक्तिके किये गये तोन अर्थो से कौन-सा अर्थ प्राय है। किन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में जन मूलमन्थोंके विनाशको लेकर जैनपरम्परामें जो विवाद चलता है उसका लेखके उक्त पाठसे आश्चर्यजनक समर्थन होता है। इससे स्पष्ट है कि उड़ीसा जैनधर्मके उस सम्प्रदायका अनुयाया था, जिसने चन्द्रगुप्तके राज्यमें पालिपुत्रमें होनेवाली वाचनामें संकलित आगमोंको स्वीकार नहीं किया था।"
जायसवालजीके उपर्युक कथनसे यह ध्वनित होता है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामें भद्रबाहु श्रुतकेवलोके समयसे श्रुतका विच्छेद होने की जो अनुभुतियाँ हैं वे मौर्यकालसे सम्बद्ध हैं। अतएव भद्रबाहु श्रत्त केवलोका अस्तित्व चन्द्रगुप्त मौर्यके समयमें सिद्ध है।
नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावलोसे भी उक्त कथनको पुष्टि होता है। पट्टावलीमें वीरनिर्वाणसे लोहाचार्य तक ५६५ वर्षोंका समय बताया है। अन्य ग्रन्थोंमें यह काल ६८३ वर्ष है। इस प्रकार कालगणनामें ११८ वर्षों का अन्तर आता है । यद्यपि तीन केवली, पांच श्रुतकेवला और ग्यारह दशपूर्वधारो आचार्योको कालगणनामें कोई अन्तर नहीं है । तो भी अहंलिसे भूतबलि पर्यन्त पाँच आचार्योके दिये गये ११८ वर्षों में ५० वर्ष श्रतकेलियोंके भी सम्मिलित कर दिये जायें तो श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तमौर्यको समकालीनता बन जाती है।
हरिषेणकृत बृहत्कथाकोषमें श्रुतकेवली भद्रबाहुका जो आख्यान आया है उसमें बताया है कि 'दुभिक्षके कारण श्रुतकेवली भद्रबाहु नवदीक्षित अपने P. Journal of Bihar Orissa Rescarch Society Pauna vol. 13 Y, 236 २. वृहत्कथाकोष, भारतीय विद्याभवन बम्बई, सन्, १९४३, पृ० ३१७-३१९
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : २३