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शिष्य चन्द्रगुप्त सहित दक्षिणकी ओर चले । चन्द्रगुप्तका दीक्षा नाम विशाखाचार्य पड़ा। जब दुर्भिक्ष समाप्त हो गया सो विशाखाचार्य समस्त संघके साथ दक्षिणापथसे मध्यदेश में लौट आया। रामिरुल, स्थविर और स्थूलभद्राचार्य तीनों दुर्भिक्षकाल में सिन्धुदेश में चले गये थे । उन्होंने वहाँसे लौटकर बतलाया कि उस देश के निवासी दुर्भिक्ष पीड़ितोंके भयसे दिनमें भोजन नहीं कर पाते थे । अतएव वे रात्रिमें भोजन करते थे । उन्होंने हमसे कहा कि आप लोग भी रात्रि के समय हमारे घरसे पात्र लेकर आहार ले जाया करें। उन लोगोंके इस अनुरोधपर हमलोग रात्रि में आहार लाकर दिनमें भोजन करने लगे। एक दिन एक कृशकाय निग्रंथ साधु हाथमें भिक्षापात्र लेकर श्रावकके घर गया । अन्धकारमें उस नग्नमुनिको देखकर एक गर्भिणी श्राविकाका भयके कारण गर्भपात हो गया । इसपर श्रावकोंने आकर साधुओंसे प्रार्थना की- "समय बड़ा खराब है । जबतक स्थिति ठोक नहीं होती, तबतक आपलोग बाँयें हाथसे अर्द्धफालकअस्त्रको आगे करके दाहिने हाथ में भिक्षापात्र लेकर रात्रिमें आहार लेने आया करें। जब सुभित हो जाय तब प्रायश्चित्त लेकर पुनः अपने तपमें संलग्न हो जाये ।" श्रावकों का उक्त कर सकते ।
जब सुभिक्ष हो गया तो रामिल्ल, स्थविर और स्थूलभद्राचार्यने सकल संघको बुलाकर अर्द्ध वस्त्र छोड़ देनेका आदेश दिया और सभी विशाखाचार्यके पास गये और नैर्ग्रन्थ्यरूप धारण किया । जिनको गुरुके वचन रुचिकर प्रतीत नहीं हुए उन शक्तिहीनोंने जिनकल्प और स्थविरकल्पका भेद करके भद्धफालक सम्प्रदायका प्रचलन किया ।'
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उपर्युक्त आख्यानका अन्य ऐतिहासिक संदर्भों में अध्ययन करनेपर अवगत होता है कि स्थविर और स्थूलभद्र भद्रबाहुके समकालीन हैं । दिगम्बर परंपरामे श्रुतकेवली भद्रबाहुको जो स्थान प्राप्त है, श्वेताम्बर परम्परामें वही स्थान स्थूलभद्रको प्राप्त है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की आचार्य परम्पराका प्रारम्भ श्रुत्त केवली भद्रबाहुसे न होकर स्थूलभद्राचार्य से होता है । अतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि दिगम्बर आरातियों की परम्परा श्रुतकेवली भद्रबाहुले प्रारम्भ होती है। इस परम्पराके आचार्यमें भेद करना शक्य नहीं है, क्योंकि सभो आचार्यों ने गौतम गणधर द्वारा ग्रथित श्रुतका ही विवेचन किया है। विषयवस्तु वही रही है, जिसका निरूपण तीर्थंकर महावीरकी दिव्यध्वनि द्वारा हुआ है। विभिन्न समयोंमें उत्पन्न होनेके कारण इन आचार्योंने केवल द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार अभिव्यञ्जना शक्तिका ही रूपान्तर किया है। तथ्य समान होते हुए भी कथन करनेकी प्रक्रिया भिन्न है। हम सुविधा की दृष्टिसे
२४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा