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दिगम्बर आरातियोंकी परम्पराको निम्नलिखित पांच भागों में विभक कर विवेचन उपस्थित करेंगे।
१. श्रुतधराचार्य । २. सारस्वताचार्य । ३. प्रबुद्धाचार्य । ४. परम्परापोषकाचार्य । ५. कवि और लेखक-आचार्य तुल्य ।
१. श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यो से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कर्भसाहित्य, बध्यारासाहिरका गायक दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोवनमें निर्वाह करते हुए किया है । यों तो प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके आधारपर ग्रन्थरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुतकेवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवलि, यतिवृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और वप्पदेवकी गणना की जा सकती है।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य हैं । इन्होंने प्रतिभाके क्षीण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेकर कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यो के मूलगुण और उत्तरगुणोंसे युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे। श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई० सन्की चतुर्थ-पंचम शताब्दी तक चलती रही है । अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोकानुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद्ध साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विवत्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा ।
२. सारस्वताचार्यसे हमारा अभिप्राय उन आचार्योस है, जिन्होंने प्राप्त हुई श्रुतपरम्पराका मौलिक ग्रन्थप्रणयन और टोका साहित्य द्वारा प्रचार और प्रसार किया है। इन आचार्यो में मौलिक प्रतिभा तो रही है, पर श्रुतधरोंके समान अंग और पूर्व साहित्यका ज्ञान नहीं रहा है । इन बाचार्यों में समन्तभद्र पूज्यपाद-देवनन्दि, पात्रकेसरी, जोइन्दु, ऋषिपुत्र, अकलंक, वीरसेन, जिनसेन,
धृतधर और सारस्वताचार्य : २५