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मानतुंग, एलाचार्य, जटासिंहनन्दि, वीरनन्दि, विद्यानन्द आदि आचार्य परिगणित हैं।
३. प्रबुद्धाचार्यसे हमारा अभिप्राय ऐसे आचार्यो से है, जिन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा ग्रन्थप्रणयनके साथ बित्तियाँ और भाष्य भी ग्ने हैं । यद्यपि सारस्वताचार्य और प्रवद्धाचार्य दोनों में ही प्रतिभाका बाहुल्य है, पर दोनोंको प्रतिभाके तारतम्य में अन्तर है । जितनी मुदम निरूपणशक्ति सारस्वताचार्योंमें पायी जाती है, उतनी सक्षम निरूपणशक्ति प्रबुद्धाचार्या में नहीं हैं। कल्पनाको रमणीयता या कल्पनाको उडान प्रबद्धाचार्यों में अधिक है, और इस श्रेणीके सभी आचार्य प्रायः कवि हैं। इनका गद्य और पद्य भी अकृत शैलीका है। अतः अभिव्यञ्जनाकी सशक्त काव्यशक्तिके रहनेपर भी सिद्धान्तनिरूपणकी वह क्षमता नहीं है, जो क्षमता सारस्वताचार्य या वृतघराचार्या में पायो जाती है । इस श्रेणीक आचायो में जिनसन प्रथम, प्रभाचन्द्र, नरेन्द्रसेन, भावसेन, आर्यनन्दि, नेमिचन्द्रगणि, पवनन्दि वादीसिंह, हरिषेण. वादिराज, पद्मनन्दि-जन्बूद्वोपपण्णत्तीकार,महासेन, सोमदेव, हस्तिमल्ल, रासिंह, नयनन्दि, माघवचन्द्र. विद्य, विश्वसेन, जयसेनाचार्य द्वितीय, अनन्तवीर्य एवं इन्द्रनन्दि आदिको गणना की जा सकती है। इन आचार्यों ने पदयात्रा द्वारा भारतका भ्रमण किया और अपभ्रंश एवं संस्कृत आदि भाषाओंमें ग्रन्थ-रचना की ।
४. परम्परापोषक आचार्योंसे हमारा अभिप्राय उन भद्रारकोसे है जिन्होंने दिगम्बर परम्पराकी रक्षाके लिए प्राचीन आचार्या द्वारा निर्मित ग्रन्थों के आधार पर अपने नवोन ग्रन्थ लिखे । सारस्वताचार्य और प्रबुद्धाचार्यमें जैसी मालिक प्रतिभा समाविष्ट थी, वेसो मौलिक प्रतिभा परम्परापोषक आचार्यो में नहीं पायो जाती। नयी सम्भावनाओंका विकास इन आचार्यों द्वारा नहीं हो सका है । पिष्टपेषणका कार्य ही इन आचार्य के द्वारा हुआ है। यों तो संस्कृति निर्माताओंके रूपमें अनेक परम्परापोषक आचार्य आते हैं, पर वाङमय-सृजनकी मौलिक प्रतिभा और अध्ययन-गाम्भीर्य प्रायः इन्हें प्राप्त नहीं था। घना-मानी शिष्योंसे वेष्टित रहकर, मन्त्र-तन्त्र या जादू-टोनेको चर्चाएं कर, जनसाधारणको ये अपनी ओर आकृष्ट करते रहते थे । धर्मप्रचार करना, जनसाधारणको धर्मक प्रति श्रद्धालु बनाये रखना एवं सरस्वतीका संरक्षण करना प्रायः परम्परापोषक आचार्यों का लक्ष्य हुआ करता था। यही कारण है कि इन आचार्यों द्वारा गद्दियों पर समृद्ध ग्रन्थागार स्थापित किये गये । मौलिक ग्रन्य-प्रणयनके साथ आर्ष और मान्य कवियों एवं श्रुतधरों द्वारा रचित वाङमय, काव्य एवं आध्यात्मसाहित्यको प्रतिलिपियाँ भी इनके तत्त्वावधानमें प्रस्तुत की गयी हैं ।
२६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा