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परम्परापोषक आचार्यों ने युगानुसार रचनाएँ न लिखकर धर्मप्रचारार्थ कथाकाव्य या दर्शन सम्बम्बी ग्रन्थोंका प्रणयन किया है। धर्म और संस्कृति के दायित्वका निर्वाह लगभग पाँच छह सौ वर्षो तक इन आचार्य के द्वारा होता रहा है। ये आचार्य आरम्भ में निश्चयतः निस्पृही, त्यागो, ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय थे । स्वयं विद्वान् होनेके साथ मनीषी विद्वान्का सम्पोषण भी इन्हींकी गद्दियांस होता था। परम्परापोषक आचार्यो का लक्ष्य ग्रन्थोंके संख्याबाहुल्य पर था, मौलिक रचनाकी ओर नहीं ।
इस श्रेणी के आचार्य
कीर्ति, मोच, सहजूर, मल्लिषेण श्रुतसागर, अजितसेन वर्द्धमानभट्टारक, ज्ञानकोति, ब्रह्मनेमिदत्त, वादिचन्द्र, सोमकीर्ति, विबुधश्रीधर, अमरकीर्ति, देवचन्द्र, यशःकीर्ति, हरिचन्द्र, तेजपाल, पूर्णभद्र, दामोदर, त्रिविक्रम, ज्ञानकीर्ति, विद्यानन्द ब्रह्मश्रुतसागर, पद्मनन्दि, नेमिचन्द्र, सहस्रकोति, जिनेन्द्रभूषण, धर्भभूषण, गुणचन्द्र, शुभचन्द्र, शुभकीर्ति, देवेन्द्रकोति, चारित्रभूषण, नागदेव, चन्द्रकीति, जयकीर्ति, सुर्मातसागर, अरुणर्माण, श्रीनन्दि, श्रीचन्द्र, कमलकीति आदि प्रमुख हैं । इन आचार्यों ने निम्नलिखित रूपमें वाङ्मयकी सेवा की है
१. पौराणिक चरित-काव्य
करन
२. लघुप्रबन्ध कथाकाव्य
३.
दूस-काव्य
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४. न्याय दर्शन विषयक साहित्य
५. मध्यात्म-साहित्य
६. प्रबन्धात्मक प्रशस्तिमूलक ऐतिहासिक काव्य
७. सन्धान- काव्य
८. सूक्ति, आचारमूलक काव्य
९. स्तोत्र और पूजाभक्ति साहित्य
१०. नाटक
११. विविध विषयक समस्यापूर्त्यात्मिक काव्य १२. संहिता - विषयक साहित्य
कवि और लेखक-दिगम्बर परम्पराकै श्रुतका संरक्षण और विस्तार आचार्यों के अतिरिक्त गृहस्थ लेखक और कवियाने भी किया है। पंडित आशाधर जैसे बहुश्रुतश विद्वान् इस परम्परामें हुए हैं । जिन्होंने मौलिक रचनाओंके साथ अनेक ग्रन्थोंके टोका और टिप्पण भी लिखे हैं । महाकवि रद्दधू, असम, हरिचन्द आदिने भी रचनाएँ लिखकर आरातीय परम्पराके विकासमें योगदान
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २७