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दिया है । आचार्य जिनसेन, महाकवि पुष्पदन्तकी परम्पराका विकास विभिन्न भाषाओं द्वारा रचित वाङ्मयके आधारपर किया है। प्रबुद्ध आचार्यों ने जिन पौराणिक महाकाव्योंके रचनातन्त्रका प्रारंभ किया था, उस रचनातन्त्रका सम्यक विकास इन कवियोंके द्वारा हुआ। संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलगु आदि भाषाओंमें कवियों और लेखकोंने सिद्धान्त और आचारविषयक रचनाएँ लिखकर श्रुतपरंपराका विकास किया है। ये लेखक और कवि भी वाङ्मयके स्रष्टा और संवर्द्धक हैं।
इस श्रेणीक कांब और लेखकोंमें असग, हरिचन्द, अहंदास. आशाघर, धर्म धर, दोडय, जगन्नाथ, लक्ष्मीचन्द्र, रामचन्द्र मुमुक्ष, पद्मनाभ कायस्थ, बनारसीदास, पंडित रामचन्द्र, ब्रह्मकामराज, रूपचन्द्र, रूपचन्द्र पाण्डेय, हरपाल, केशवसेन, अक्षयराम, देवदत्त, पंडित धरसेन, शिवभिराम, ब्रह्मराजमल आदि प्रमुख हैं। साधारणतः इन कवि और लेखकोंमें अधिकांशका संबन्ध भट्टारकोंके साथ है । यह भी संभव है कि इनमेंसे दो चार कवि या लेखक भट्टारक भी रहे हों, पर रचनाओंसे इनका जीवन सांसारिक गृहस्थके समान हो प्रतीत होता है । इसी कारण हमने इनकी गणना कवि और लेखकोंमें को है।
श्रुतधराचार्य आचार्य गुणधर और उनकी रचनाएं
श्रुतधराचार्यों को परंपरामें सर्वप्रथम आचार्य गुणधरका नाम आता है । गुणधर और धरसेन दोनों ही श्रुत-प्रतिष्ठापकके रूपमें प्रसिद्ध हैं । गुणधर आचार्य धरसेनकी अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे। गुणवरको 'पञ्चमपूर्वगत पेन्जदोसपाहुर' का ज्ञान प्राप्त था और घरसेनको 'पूर्वगत कम्मपडिपाहुड' का । इतना ही नहीं, किन्तु गुणधरको 'पेज्जदोसपाहु के अतिरिक्त 'महाकम्मपडिपाहुड'का भी मान प्राप्त था, जिसका समर्थन 'कसायपाहुई'से होता है । 'कसायपाहुड में बन्ध, संक्रमण, उदय और उदीरणा जैसे पृथक् अधिकार दिये गये हैं। ये अधिकार 'महाकम्मपडिपाहु के चौबीस अनुयोगद्वारोंमेंसे क्रमशः षष्ठ, द्वादश और दशम अनुयोगद्वारोंसे संबद्ध हैं। 'महाकम्मपयडिपाहुड'का चौबीसवाँ अल्पबहुत्व नामक अनुयोगद्वार भी 'कसायपाहुड'के सभी अर्थाधिकारों में व्याप्त है । अतः स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर 'महाकम्मपयडिपाहुड के ज्ञाता होने के साथ 'पेज्जदोसपाहुड' के ज्ञाता और 'कसायपाहुड' के रूपमें उसके उपसंहारकर्ता भी थे। पर 'छासडागम'को धदला-टोकाके अध्ययनसे ऐसा ज्ञात नहीं होता कि परसेन 'पेजदोसपाहुब'के माता थे । अतएव आचार्य गुणघरको दिगंबर परंपरामें लिखित रूपमें प्राप्त श्रुसका प्रथम श्रुतकार माना जा सकता है। घरसेनने किसी ग्रन्थकी
२८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा