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रचना नहीं की। जबकि गुणधरने 'पेज्जदोसपाहुड'की रचना की है । जयघवलाके मंगलाचरणके पश्चसे ज्ञात होता है कि आचार्य गुणधरने कसायपाएका गाथाओं द्वारा व्याख्यान किया है।
जेणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्जलं अणंतत्यं ।
गाहाहि विवरियं तं गुणहरभडारयं यंदे ॥ ६ ॥ इसके अनन्तर आचार्य वीरसेनने लिखा है-ज्ञानप्रवादपूर्वके निर्मल दसवें वस्तु अधिकारके तृतीय कसायपाहुडरूपी समुद्रके जलसमूहसे प्रक्षालित मतिज्ञानरूपी नेत्रवारी एवं त्रिभुवन-प्रत्यक्षजानकर्ता गुणधर भट्टारक हैं और उनके द्वारा उपदिष्ट गाथाओंमें सम्पूर्ण कसायपाहुडका अथं समाविष्ट है । आचार्य वीरसेनने उसी संदर्भ में आगे लिखा है कि तीसरा कषायप्राभूत महासमुद्रके तुल्य है और आचार्य गुणधर उसके पारगामी हैं । ___ वीरसेनाचार्यके उक्त कथनसे यह ध्वनित होता है कि आचार्य गुणधर पूर्वविदोंकी परम्परा में सम्मिलित थे, किन्तु धरसेन पूर्वविद् होते हुए भी पूर्वविदोंकी परम्परामें नहीं थे । एक अन्य प्रमाण यह भी है कि घरसेनकी अपेक्षा गुणधर अपने विषयके पूर्ण ज्ञाता थे ! अतः यह माना जा सकता है कि गुणधर ऐसे समयमें हुए थे जब पूर्वो के आंशिक ज्ञानमें उतनी कमी नहीं आयी थो, जितनी कमी धरसेनके समयमें आ गयी थी । अतएव गुणधर धरसेनके पूर्ववर्ती हैं। समय-विचार ___ आचार्य गणघरके समयके सम्बन्धमें विचार करनेपर ज्ञात होता है कि इनका समय घरसेनके पूर्व है। इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें लोहार्य तकको गुरूपरम्पराके पश्चात् विनयदस, श्रीदत्त, शिवदत्त और अहंइत्त इन चार आचार्योका उल्लेख किया गया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वो के एकदेशनाता थे। इनके पश्चात् अहंद्वलिका नाम आया है। अर्हलि बड़े भारी संघनायक थे। इन्हें पूर्वदेशके पुण्ड्वर्धनारका निवासी कहा गया है। इन्होंने पञ्चवर्षीय युगप्रतिक्रमणके समय बड़ा भारो एक यसि-सम्मेलन किया, जिसमें सौ योजन सकके यति सम्मिलित हुए। इन यत्तियोंको भावनाओंसे अर्हदलिने सात किया कि अब पक्षपातका समय आ गया है । अतएव इन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पञ्चस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामोंसे भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये, जिससे परस्परमें मंबास्सख्यभाव वृद्धिंगत हो सके। __ संघके उक्स नामोसे यह स्पष्ट होता है कि गुणधरसंघ आचार्य गुणधरके नाम पर ही था । अतः गुणधरका समय अहंवलिके समकालीन या उनसे भी
ववषर और सारस्वताचार्य : २९