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हैं, उनमें बतलाया है कि वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म हुआ। अतएव ४९२ - ४७० - २२ अर्थात् विक्रमके जन्मसे २२ वर्ष पाछे सुभद्राचार्यका अन्त हुआ । तत्पश्चात् भद्रबाहु द्वितीय पट्टासोन हुए। स्पष्ट है कि वि० सं० २२ से वि० सं०४५ तक भद्रबाहु द्वितीयका समय आता है।
सरस्वतीगच्छकी पट्टावलीमें इन्हें जातिसे ब्राह्मण बताया है और इनकी आयु ७७ बर्षकी कही गयी है । इस पट्टावलोमें भद्रबाहके तीन शिष्योंके नाम आये हैं--गुप्तिगुप्त, अर्हबलि और विशाखाचार्य । श्रुतके प्रलो भद्रबाहुके शिष्यका नाम भी विशाखाचार्य था । नन्दिसंघको पट्टावली में भद्रबाहु द्वितीयके शिष्यका नाम लोहाचार्य बताया गया है । द्वितीय भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुसको स्थिति सर्वथा असांदग्ध नहीं है। अतएव श्वेताम्बर परम्पराके द्वितीय भद्रबाहु दिगम्बर परम्पराके भद्रबाहु द्वितोयसे सर्वथा भिन्न हैं। दिगम्बर भद्रबाहु वराहमिहिरके भाई नहीं हैं। __ श्रुतकेवली भद्रबाहुके गुरुका नाम गोवर्धनाचार्य है। ये ही दिगम्बर मुनियोंका सघ लेकर दक्षिणकी ओर गये थे और इन्हीका शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य था। चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में हरिषेणकथाकोषमें भद्रबाहुका आख्यान आया है। इसमें चन्द्रगृप्तको उज्जयिनीका राजा बतलाया गया है। शिशुनाग वंश और नन्दवंशके राज्य में भी उज्जयिनीका राज्य सम्मिलित था । यद्यपि चन्द्रगुप्त मौर्यकी प्रधान राजधानी पाटलिपुत्रमें थी; पर पश्चिम खण्डकी राजधानी उज्जयिनीमें स्थित थी। जब भद्रबाहु उज्जयिनी में पधारे उस समय उस नगरमें महान् श्रावक राजा चन्द्रगुप्त था। इससे अवगत होता है कि उस समय चन्द्रगुप्त उज्जयिनी में गया हुआ था। यह जैन श्रमणोंका बड़ा भक था और उनका यथोचित आदर-सत्कार करता था । मि. जॉर्ज सी० एम० वल्डंवुकने लिखा है-“चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार दानों जैन थे; किन्तु चन्द्रगुप्तके पौत्र अशोकने बौद्धधर्म स्वीकार किया था ।''
तिलोयपण्णत्तोमें बताया है कि मुकुटधर राजाओंमें अन्तिम राजा चन्द्रगुप्तने जिनदीक्षा ग्रहण की थी। इसके पश्चात् अन्य कोई मुकुटबर दीक्षित नहीं हुआ।
मउडधरेसु चरिमो जिणदिक्ख परिद चंदगुत्तो य । तत्तो मरडधरा दुप्पञ्चज्ज व गेहति ।।
१, कैलाशचन्द्र शास्त्रो, जैन साहित्यका इतिहास, पूर्व पीठिका. वर्णी ग्रन्थमाला
वाराणसी, पृष्ठ ३५२ । २. तिलोयपणती ४.१४८१
२२ : तीर्थकर महावीर ओर उनको आचार्य परम्परा