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१. 'णमो पदाणुसारीणं ।'
पदानुसारी ऋद्धिके धारकोंको नमस्कार हो । पदानुसारी बुद्धिके तीन भेद हैं-१. पदानुसारो बुद्धि, २ प्रतिसारी बुद्धि और ३. तदुभयसारी बुद्धि । जो बुद्धि बीजपदके अपस्तन पदोंको बीजपदस्थित हेतुरूपसे जानती है वह पदानुसारी बुद्धि है। जो उसके विपरीत उससे उपरिम पदोंको ही जानती है वह प्रतिसारी बुद्धि कालाती है। जो उक्त बीजपदले पाश्र्वभागों में स्थित पदोंको नियमसे अथवा बिना नियम भी जानती है उसे तदुभयसारा बुद्धि कहते हैं। २. णमो पन्जसमणाणं'
प्रशाश्रमणोंको नमस्कार हो । प्रज्ञा चार प्रकारको होती है-१. औत्पत्तिकी, २. वैनयिको, ३. कर्मजा और ४. पारिणामिकी । जो पूर्वजन्मसम्बन्धी चार प्रकारको निर्मलबुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगों का अवधारण, पठन, श्रवण आदि करते हैं वे औतात्तिका प्रज्ञाश्रमण कहलाते हैं। छ: मासके उपवाससे कृश होते हुए भी अपनी बुद्धिके प्रभावसे चौदहपूर्वोके विषयका भी उत्तर देते हैं तथा विनयपूर्वक बारह अंगोंको पढ़ते हैं उन्हें वेनयिकोप्रज्ञाश्रमण कहते हैं। परोपदेशसे उत्पन्न बुद्धि भी वैनयिकी प्रज्ञा कहलाती हैं। गुरू उपदेशके बिना तपश्चरणके प्रभावसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसका नाम कर्मजा प्रज्ञा है। जातिविशेषसे उत्पन्न हुई बुद्धि पारिणामिकी कहलाती है।
इस प्रकार तिलोयपणतीके अनुसार वज्रयश एक बड़े आचार्य हुए हैं, जो प्रज्ञाश्रमण ऋद्धिके धारक थे और जिनका बड़ी श्रद्धासे नामोल्लेख किया जाता था।
समय-निर्धारण
आचार्य 'वनयश' या 'वइरजस' उनका उल्लेख करनेवाले आचार्य यति वृषभके पूर्ववर्ती हैं। चिरन्तनाचार्य
चिरन्तनाचार्यका उल्लख जयघवलाटीकामें प्राप्त होता है । इसमें बताया है"भेदामावादोचिरंतणाइरियवक्खाणं पि एत्य अप्पणो पढमपुढविवक्खाणसमाणं ।" १. वेदनाखण्ड, कृति अनुयोग द्वार, सूत्र ८ । २. षट्वण्टागम, वेदनाखण्ड, कृति अनुयोगद्वार, सूत्र १८ । ३. जयघवला, भाग १, पु० ५३४ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ७९