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आचार्यका उपदेश प्रकृत, कषायसंयोगवर्णन क्रममें अप्रवाह्यमान है और नागहस्ति क्षमाश्रमणका उपदेश प्रवाह्यमान है ।
उपर्युक्त संदर्भ से यह निष्कर्ष निकलता है कि उपदेशकी दो परम्पराएँ, विद्यमान थीं। एक पवाइज्जत' और दूसरी 'अपवाहज्जमान' | वीरसेनने आर्यमंक्षुके उपदेशको 'अपवाइज्माण' और नागहस्तिके उपदेशको 'पवाडज्जत' कहा है। उपयोगाधिकारकी चतुर्थ गाथाकी विभाषा करते हुए चूर्णिकारने इग गायकी विभाषा विषयमें दो उपदेश बताये हैं। एक उपदेशके द्वारा व्याख्यान समाप्त करके लिखा है कि अब 'पवाइज्र्ज्जत' उपदेश के द्वारा नौथो मायाको विभाषा करते हैं । साधारणतः आर्यमक्षु और नागहस्तिके उपदेश में कोई अन्तर नहीं था; पर क्वचित् कदाचित् उपदेशमें अन्तर रहनेके कारण पवाइज्जत' और 'अपवाइज्जमाण' का उल्लेख आया है |
आर्य का उपदेश 'अपवाइज्जमाण' क्यों था, इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर परम्परासे कुछ प्रकाश पड़ता है । इस परम्परामें बताया है कि आचार्य आर्यमक्षु विहार करते हुए मथुरापुरी पहुंचे। यहां पर श्रद्धालु 'भक्त' और शुश्रूषारत शिष्यों के व्यामोहके कारण वहीं रहने लगे। रसगारवके वे इतने वशीभूत थे, जिससे बिहार वहीं रहने को वर्ष श्रमय शिथिल होने लगा और वहीं उन्होंने समाधिमरण प्राप्त किया ।"
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वज्रयश
'निलोय पण्णत्ती' में आचार्य वच्चयशका उल्लेख है और उन्हें अन्तिम प्रज्ञाश्रमण बताया गया है। लिखा है
पणसमणेसु चरिमो वदरजसो णाम ओहिणाणीसु । रिमो सिरिणाम सुदविणयसुसीलादिसंपण्णो ॥
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यहाँ प्रज्ञाश्रमणों में अन्तिम प्रज्ञाश्रमण वस्त्रयश या 'वइरजस'का स्पष्ट निर्देश है । यदि ये 'वइरजस' श्वेताम्बर पट्टाबलियोंमें उल्लिखित वज्रयण ही हों, तो कोई आश्चर्य नहीं । तत्त्वार्थवात्तिक में पदानुसारित्व और प्रज्ञामश्रणत्व इन दो ऋद्धियोंको एक ही बुद्धि ऋद्धिके उपभेद कहा है । षट्खण्डागमके वेदना खण्ड में निबद्ध गौतम स्वामीकृत मंगलाचरण में इन दोनों ऋद्धियोंके धारक आचार्योंको नमस्कार किया है
१. राजेन्द्र अभिधानका 'अज्जमंग' शब्द |
२. तिलोय पण्णत्ती ४।१४८० |
३. ० ० १४३ ॥
७८: तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परा