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क्योंकि सिंहसूर्यके प्रकाशित इस लोकविभागमें 'तिलोय पण्णत्तो', 'हरिवंश' एवं 'आदिपुराण' आदि ग्रन्थोंका आधार भी प्राप्त होता है। संस्कृत-लोक विभागके पञ्चम विभाग सम्बन्धी ३८ पद्यसे १३७वं पद्यका कुल चौदह कुलकरोंका प्रतिपादन आदिपुराणके श्लोकों या श्लोकांशों द्वारा किया गया है। इसी प्रकार 'तिलोयपण्णत्ती'की अपेक्षा बातवलयोंके विस्तारमें भी नवीनता प्रदर्शित की गई है । 'तिलोयपण्णत्ती' मेंतीनों वातवलयोंका विस्तार क्रमशः १३, १६एवं १११ कोश निर्दिष्ट किया है। पर सिंहसूर्यने दो कोश, एक और १५७५ धनुष बतलाया है। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती'में ज्योतिषियों के नगरोंका बाहुल्य और विस्तार समान कहा गया है, पर इस ग्रन्थमें उसका कथन नहीं किया है । इस प्रकार संस्कृत लोकविभागके अन्तरंग अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ सर्वनन्दिके लोकविभागका अनुवादमात्र नहीं है। यह संभव है कि सर्वनन्दिने कोई लोकविभाग सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा हो और उसका आधार ग्रहणकर सिंहसूर्यने प्रस्तुत लोकविभागकी रूपरेखा निर्धारित की हो । 'तिलोयपण्णत्ती' में 'संगाइणी' और 'लोकविनिश्चिय' जैसे ग्रन्थोंका भी निर्देश आया है। हमारा अनुमान है कि सिंहसूर्यके लोकविभागमें भी "तिलोयपण्णत्तो के समान ही प्राचीन आचार्योंके मतोंका ग्रहण किया गया है। सिंहसूर्यका मुद्रित लोकविभाग वि० सं० को ग्यारहवीं शताब्दोकी रचना है । अत: इसके पूर्व "तिलोयपण्णत्ती'का लिखा जाना स्वतः सिद्ध है। कुछ लोगोंने यह अनुमान किया है कि सर्वनन्दिके लोकविभागका रचनाकाल बिक्रमकी पाँचवीं शताब्दी है। अतः यतिवृषभका समय उसके बाद होना चाहिए । पर इस सम्बन्धमें हमारा विनम्र अभिमत यह है कि यतिवृषभका समय इतनी दूर तक नहीं रखा जा सकता है। ___ आचार्य यतिवृषभने अपने 'तिलोयपण्णत्ती' ग्रन्थमें भगवान महावीरके निर्वाणसे लेकर १००० वर्ष तक होने वाले राजाओंके कालका उल्लेख किया है। अतः उसके बाद तो उनका होना संभव नहीं है । विशेषावश्यकभाष्यकार श्वेताम्बराचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यकभाष्यमें चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभके आदेश-कषायविषयक मतका उल्लेख किया है और विशेपावश्यकभाष्यको रचना शक संवत् ५३१ (वि० सं० ६६६) में होनेका उल्लेख मिलता है। अतः यतिवृषभका समय वि० सं० ६६६ के पश्चात् नहीं हो सकता।
__आचार्य यतिवषभ पूज्यपादसे पूर्ववर्ती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थमें उनके एक मतविशेषका उल्लेख किया है
८४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा