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"अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ता ।"
अर्थात् जिन आचार्यो के मतसे सासादनगुणस्थानवत्ती जोव एकइन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न नहीं होता है उनके मतकी अपेक्षा १२ भाग स्पर्शनक्षेत्र नहीं कहा गया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि सासादन गुणस्थानवाला मरण कर नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है। यह आचार्य यतिवृषभका ही मत है । लब्धि. सार-क्षपणासारके कर्ता आचार्य नेमिचन्दने स्पष्ट शब्दों में कहा है
जदि पद सासणो सो णिनिरिनामा पनि
णियमादेवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेणं ॥ अर्थात् आचार्य यतिवृषभके वचनानुसार यदि सासादनगुणस्थानवर्ती जीव मरण करता है तो नियमसे देव होता है।
'आचार्य यतिवृषभने चूर्णिसूत्रोंमें अपने इस मतको निम्न प्रकार व्यक्त किया है.
'आसाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिषखदि मणुसगदि वा गंतुं । णियमा देवगदि गच्छदि 13
इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभ पूज्यपादके पूर्ववर्ती हैं और आचार्य पूज्यपादके शिष्य वचनन्दिने वि० सं० ५२६ में द्रविडसंघको स्थापना को है । अतएव यत्तिवृषभका समय वि० सं० ५२६ से पूर्व सुनिश्चित है। ___कितना पूर्व है, यह यहाँ विचारणीय है। गुणधर, आर्यमा और नागहस्तिके समयका निर्णय हो जानेपर यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है कि यतिवृषभका समय आर्यमझ और नागहस्तिसे कुछ ही बाद है। __ आधुनिक विचारकोंने “तिलोयपण्णत्ती' के कर्ता यतिवृषभके समयपर पूर्णतया विचार किया है । पंडित नाथूराम प्रेमी और श्री जुगलकिशोर मुख्तारने यतिवृषभका समय लगभग पांचवीं शताब्दी माना है। डाक ए० एन० उपाध्येने भी प्राय: इसी समयको स्वीकार किया है। पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने वर्तमान तिलोयपण्णत्तीके संस्करणका अध्ययन कर उसका रचनाकाल वि. की नवीं शताब्दी स्वीकार किया है। पर यथार्थतः यत्तिवृषभका समय अन्तःसाक्ष्यके आधारपर नागहस्तिके थोड़े अनन्तर सिद्ध १. सर्वार्थसिद्धि। २. लघिसार-सपणासार गाथा संध्या ३४६ । ३. कसायपाहुड, अधिकार १४, सूत्र ५४४ ।
अतघर और सारस्वताचार्य : ८५