________________
सूत्रों की रचना की । यतिवृषभके ग्रन्थो के अवलोकनसे यह ज्ञात होता है कि इनके समक्ष षट्खण्डागम, लोकविनिश्चय, संगाइणी और लोकविभाग (प्राकृत) जैसे ग्रन्थ विद्यमान थे । इन प्रत्थों का सम्यक् अध्ययनकर इन्हों ने चूर्णि सूत्रों की रचना की ।
'तिलोयपण्णत्ती' में
-
"जल सिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा । लोयविभाए विणि ।।
एवं
संगाइणिए लोयविणिच्छय-गंधे लोयविभागम्मि सव्वसिद्धाणं । ओगाहण परिमाणं भणिदं किंचूण चरिमदेहसमो ||""
इन गाथाओं में लोकविभागका उल्लेख आया है। यह लोकविभाग प्रत्य संभवतः आचार्यं सर्वनन्दि द्वारा विरचित होना चाहिए। पर यतिवृषमके समक्ष यही लोकविभाग था, इसका कोई निश्चय नहीं । लोकानुयोगके प्रत्य प्राचीन है और संभवतः यतिवृषमके समक्ष कोई प्राचीन लोकविभाग रहा होगा । इन सर्वनन्दिने काञ्चीके राजा सिंहवर्माके राज्यके बाईसवें वर्ष में जब शनिश्चर उत्तराषाढ़ा नक्षत्र पर स्थित था, बृहस्पति वृष राशिमें और चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें अवस्थित था; इस ग्रन्थकी रचना की । यह ग्रन्थ शक सं० ३८० ( वि० सं० ५१५ ) में पाणराष्ट्रके, पाटलिक ग्राममें पूरा किया गया । सर्वनन्दिके इस लोकविभागका निर्देश सिंहसूर्यके संस्कृत लोकविभागकी प्रशस्ति में पाया जाता है ।
वैश्वे स्थिते रविसुते वृषमे च जीवें राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे | ग्रामे च पाटलिकनामनि पाणराष्ट्र
शास्त्रं पुरा लिखितवान् मुनिसवं नन्दी || संवत्सरे तु द्वाविंशे काञ्चीशः सिंहवर्मणः । अशीत्यग्रे शकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये ॥
इस प्रशस्तिसे आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने यह निष्कर्ष निकाला है कि सिंहसूर्य का यह लोकविभाग सर्वनन्दिके प्राकृत लोकविभागका अनुवादमात्र है। उन्होंने भाषाका परिवर्तन ही किया है, मौलिक कुछ नहीं लिखा । पर इस लोकविभाग के अध्ययनसे उक्त निष्कर्ष पूर्णतया निर्भ्रान्त प्रतीत नहीं होता;
१. तिलोयपण्णत्ती की गाथाएँ, पुरातन जैन वाक्य सूची की प्रस्तावना पृ० ३१ पर उद्भुत । २. लोकविभाग, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् १९६२, ११।५२-५३
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ८३