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आचार्य वीरसेन के उल्लेखानुसार चूर्णिसूत्रकारका मत 'कसायपाहुड' और 'षट्खण्डागम' के मत के समान ही प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण है । वि० की ग्यारहवीं शताब्दो में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्त्तीने 'लब्धिसार नामक ग्रन्थ में पहले यतिवृषभके मतका निर्देश किया है । तदनन्तर भूतबलिके मतका | इससे स्पष्ट है कि यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र ग्रन्थोंके समान ही महत्त्वपूर्ण और उपयोगी थे ।
यह सत्य है कि यतिवृषभाचार्य का व्यक्तित्व आगमव्याख्याताकी दृष्टिसे अत्यधिक है । इन्होंने आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, बक्तव्यता और अर्थाधिकार इन पाँच उपक्रमोंको दृष्टिसे सूत्ररूप अर्थाद्घाटन किया है । यतिवृषभ विभाषासूत्र, अवयवार्थ एवं पदच्छेदपूर्वक व्याख्यान करते गये हैं ।
चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभके व्यक्तित्व में निम्नलिखित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं
१. यतिवृषभ आठवें कर्मप्रवादके ज्ञाता थे ।
२. नन्दिसूत्र के प्रमाणसे ये कर्मप्रकृतिके भी ज्ञाता सिद्ध होते हैं ।
३. आर्यमक्षु और नागहस्तिका शिष्यत्व इन्होंने स्वीकार किया था ।
४. आत्मसाधक होनेके साथ ये श्रुताराधक हैं ।
५. धवला और जयधवलामें भूतबलि और यतिवृषभ के मतभेद परिलक्षित होते हैं ।
६. व्यक्तित्वको महनीयताको दृष्टिसे यतिवृषभ भूतबलिके समकक्ष है। इनके मलोकी मान्यता सार्वजनीन है ।
७. चूर्णसूत्रों में यतिवृषभने सूत्रशैलीको प्रतिविम्बित किया है।
८. परम्परासे प्रचलित ज्ञानको आत्मसात् कर चूर्णि सूत्रोंकी रचना की गई है।
९. यतिवृषभ आगमवेत्ता तो थे, ही पर उन्होंने सभी परम्पराओंमें प्रचलित उपदेशशैलोका परिज्ञान प्राप्त किया और अपनी सूक्ष्म प्रतिभाका चूर्णि सूत्रों में उपयोग किया |
समय-निर्णय
चूर्णिसूत्रकार आचार्य यतिवृषभके समय के सम्वन्ध में विचार करनेसे ज्ञात होता है कि ये षट्खण्डागमकार भूतबलिके समकालीन अथवा उनके कुछ ही उत्तरवर्ती हैं । कुन्दकुन्द तो इनसे अवश्य प्राचीन है । बताया गया है कि प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर इन्होंने गुणघरके 'कसायपाहुड' पर चूर्णि -
८२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा