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द्वितीय शताब्दीके पश्चात्का ही है । अतएव भाषा और शैलोकी दृष्टिसे विमलसरिके समयकी पूर्वावधि ई० सन् द्वितीय शताब्दी मानी जा सकती है। इस ग्रन्थमें उज्जैनके स्वतन्त्र राजा सिहोदरका उल्लेख आया है, जिसका दशपुरके भृत्य राजाके साथ युद्ध हुआ था। यह इस ग्रन्थको ई० सन् दूसरी शतीके पूर्वका सिद्ध नहीं करता है । यतः यह युद्ध महाक्षत्रिपोंको ओर संकेत करता है। श्रीशैल और श्रीपर्वतवासियोंका उल्लेख तृतीय शतीके आन्ध्र देशके श्रीपर्वतीय इध्वाकु राजाओंका स्मरण कराता है। आनन्द लोगोंका उल्लेख तीसरी-चौथी शतीके आनन्दवंशकी ओर संकेत करता है। दोनारका निर्देश भी इस रचनाको गुप्तकालीन सिद्ध करता है । अपभ्रंश भाषाका प्रभाव और उत्तरकालीन छन्दोंका प्रयोग इस रचनाको तीसरी-चौथी शताब्दीका सिद्ध करता है। जैकोबी ने भी यही समय माना है । अतएव संक्षेपमं विमलसूरिका समय ई० सन् चौथो शताब्दीके लगभग मानना चाहिये । रचनाएँ _ विमलसूरिकी दो रचनाएँ मानी जाती रही हैं, 'पउमचरिय' और 'हरिवंसचरिपं' । पर अब कुछ विद्वान् 'हरिवंसरिय'को विमलसूरिकी रचना नहीं मानते हैं । उनका अभिमत है कि विमलसुरिको एक ही रचना है 'पउमरियं', यह दूसरी रचना भ्रान्तिवश ही उनको मान ली गयी है। पउमचरिय
इस ग्रन्थमें ११८ सर्ग है और सास अधिकारों में समस्त वाथावस्तु अंकित है। स्थिति, वंशसमुत्पत्ति, प्रस्थान, लबांकुशोत्पत्ति, निर्वाण और अनेक भव इन सात अधिकारोंका निर्देश किया गया है और समस्त रामकथाका समावेश इन सात अधिकारोंमें ही किया है। __ कथावस्तु-अयोध्या नगरीके अधिपति महाराज दारथकी अपगजिता और अमित्रा दो रानियां थीं । एक समय नारदने दशरथस कहा कि आपके पुत्र द्वारा सोताके निमित्त गयणका बंध होनेकी भविष्यवाणी सुनकर विभीषण आपको मारने आ रहा है। नारदसे इस सूचनाको प्राप्त कर दशरथ छद्मवेशमें राजधानी छोड़कर चले गये। संयोगवश कैकयीक स्वयंबरमें पचे । कैकयीने दशरथका वरण किया, जिससे अन्य राजकुमार मप्र होकर युद्ध करनेके लिए तैयार हो गये । युद्ध में दशरथके रवका संचालन कैकयीने बड़ी कुशलताके साथ किया, जिससे दशरथ विजयो हुए । अतः प्रसन्न होकर दशरथने कैकयीको एक वरदान दिया।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : २५७