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अपराजिता के गर्भ से एक पुत्रका जन्म हुआ, जिसका मुख पद्म जैसा सुन्दर होनेसे पद्म नाम रखा गया। इनका दूसरा नाम राम है, जो पद्मको अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध है । इसी प्रकार सुमित्रासे लक्ष्मण और केकयीके गर्भसे भरतका जन्म हुआ ।
एक बार राम - पद्म अर्ध-बर्बरोंके आक्रमण से जनककी रक्षा करते हैं, जनक प्रसन्न हो अपनी औरस पुत्री सीताका सम्बन्ध रामके साथ तय करते हैं । जनकके पुत्र भामण्डलको शैशवकालमें ही चन्द्रगति विद्याधर हरण कर ले जाता है। युवा होने पर अज्ञानतावश सीतासे उसे मोह उत्पन्न हो जाता है । चन्द्रगति जनकसे भामण्डल के लिये सीताकी याचना करता है । जनक असमंजसमें पड़ जाते हैं और सीता स्वयंवरमें धनुषयज्ञ रचते हैं । सीताके साथ रामका विवाह हो जाता है ।
दशरथ रामको राज्य देकर भरत सहित दीक्षा धारण करना चाहते हैं । कैकयी भरतको गृहस्थ बनाये रखनेके हेतु वरदान स्वरूप दशरथसे भरतके राज्याभिषेककी याचना करती है, दशरथ भरतको राज्य देनेके लिये तैयार हो जाते है | भरतके द्वारा आनाकानी करने पर भी राम उन्हें स्वयं समझाबुझाकर राज्याधिकारी बनाते हैं और स्वयं अपनी इच्छा से लक्ष्मण तथा सीता के साथ वन चले जाते हैं । दशरथ श्रमणदीक्षा धारण कर करने लगते हैं। इधर अपराजिता और सुमित्रा अपने पुत्रके वियोग से बहुत दुःखो होती हैं ! कैकयीसे यह देखा नहीं जाता, अतः वह पारियात्र वनमें जाकर उनको लौटाने का प्रयत्न करती है, पर राम अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहते हैं ।
जब राम दण्डकारण्य वनमें पहुँचते हैं, तो लक्ष्मणको एक दिन तलवारकी प्राप्ति होती है। उसकी शक्तिकी परीक्षाके लिये वे एक झुरमुटको काटते हैं । असावधानीसे शंबुककी हत्या हो जाती है, जो कि उस झुरमुट में तपस्या कर रहा था। शंबुककी माता चन्द्रनखा, जो रावणकी बहन थी, पुत्रकी खोजमें वहाँ आ जाती है । वह राजकुमारोंको देखकर प्रथमतः क्षुब्ध होती है, पश्चात् उनके रूपसे मोहित होकर वह दोनों भाइयोंमेंसे किसी एक को अपना पति बननेकी याचना करती है। राम-लक्ष्मण द्वारा चन्द्रनखाका प्रस्ताव ठुकराये जाने पर वह क्रुद्ध होकर अपने पति खरदूषणको उल्टा सीधा समझाकर उनके वधके लिये भेजती है । इधर रावण भी अपने बहनोईकी सहायताके लिये वहीं पहुँचता है। रावण सीता के सौन्दर्य पर मुग्ध हो राम और लक्ष्मणकी अनुपस्थिति में सीताका हरण कर लेता है। खरदूषणको मारनेके अनन्तर राम सीताको न पाकर बहुत दुःखी होते हैं । उसी समय एक विद्याधर विराधित रामको २५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा