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परूवणट्टमुच्चारणाइरियवक्खाणं भणिस्सामो।"
अर्थात् परिवार द्वारा किए कामागाधारी पक्षामान किया है ।
चूणिसुत्रकी अपेक्षा ओधका कथन करके जघन्य और अजघन्य स्थितियोंके कालानुसार उच्चारणाचार्य द्वारा अभिमत व्याख्यान करते हैं । __ इस कथनगे दो तथ्य निःसृत होते हैं। प्रथम यह कि यत्तिवृषभके पश्चात् उनवारणाचार्यने अपनी व्याख्या उपस्थित की। दूसरा यह कि यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंके आधारपर उच्चारणाचार्यने अपना व्याख्यान अंकित किया । इससे यह अबगत होता है कि उच्चारणाचार्यका समय यतिवृषभके पश्चात् अथवा उनके समकालीन है।
यतिवृषभका समय ई० सन् की द्वितीय शती है। अतएव उच्चारणाचार्यका समय भी ई० सन की द्वितीय शतीका अंतिम पाद अथवा तृतीय शतीका प्रथम पाद संभव है। बप्पदेवाचार्य ____ श्रुतधराचार्यों में शुभनन्दि, रविनन्दि और वापदेवाचार्यके नाम भी आते हैं । शुभनन्दि और रविनन्दि नामके दो आचार्य अत्यन्त कुशाग्रबुद्धिके हुए हैं । इनसे बप्पदेवाचार्यने समस्त सिद्धान्तग्रन्थका अध्ययन किया। यह अध्ययन भीमरथि और कृष्णामेख नदियोंके मध्य में स्थित उत्कलिकाग्रामके समीप मगणवल्लि ग्राममें हुआ था | भीमरथि कृष्णानदीकी शाखा है और इनके बीचका प्रदेश अब बेलगांव या धारवाड कहलाता है । वप्पदेवाचायंने यहींपर उक्त दोनों गुरुओंसे सिद्धान्तका अध्ययन किया होगा। इस अध्ययनके पश्चात् उन्होंने महाबन्धको छोड़ शेष पाँच खण्डोंपर व्याख्याप्रज्ञप्तिनामको टीका लिखी है
और छठे स्तुण्डकी संक्षिप्त विति भी लिखी है। इन छहों खण्डोंके पूर्ण हो जानेके पश्चात् उन्होंने कषायप्राभूतको भी टीका रची । उक्त पाँचों खण्डों और कषायप्राभुतकी टोकाका परिमाण ६०००० और महाबन्धको टीकाका ५ अधिक ८००० बताया जाता है। ये सभी रचनाएं प्राकृत भाषामें की गयी थीं | इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है
एवं व्याख्यानक्रममवाप्तवान् परमगुरुपरम्परया । आगच्छन् सिद्धान्तो द्विविधोऽयतिनिशितवद्धिभ्याम् ॥ शुभ-रविनन्दिमुनिभ्यां भीमरथि-कृष्ण मेखयोः सरितोः ।
मध्यमविषये रमणीयोत्कलिकानामसामीप्यम् ।। १. जयपबला सहित कसायपाहुड, भाग ३, पृ० २९२ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ९५