________________
उभयाचार, ४. कालाचार, ५. विनयाचार ६. उपधानाचार, ७. बहुमानाचार, ८ बनिन्ह्वाचार ज्ञानप्राप्तिके ये आठ अंग हैं।
तृतीय अधिकारमें सम्यकचारित्रका व्याख्यान किया गया है और सकलचारित्र और विकलचारित्र कहकर मुनिधर्म और श्रावकधर्मका विवेचन किया है। पंचक्रतोंके प्रसंगमें अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रहाचर्य और अपरिग्रहका मुनि एवं गृहस्थकी अपेक्षासे स्वरूप बतलाया गया है । कषायसे 'अपने' और 'पर'के भावप्राण और द्रव्यप्राणका घात करना हिंसा है । हिंसा और अहिंसाका सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए लिखा है
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवहिसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः । युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ।। यस्मात्सकषायःसनहन्त्यारमा प्रथममात्मनात्मानम्।
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां' तु॥ निश्चयत्तः रागादि भावोंका प्रकट न होना अहिंसा है और रागादिभावोंको उत्पत्ति होना हिंसा है । रागादि भावोंके न रहनेपर सन्त पुरुषोंके केवल प्राणपीड़नसे हिंसा नहीं होती। रागादि मावोंके वशमें प्रवृत्त हुई अयतनाचाररूप प्रमाद अवस्थामें जीव भरे अथवा न मरे हिंसा अवश्य होती है। आशय यह है कि हिंसाशब्दका अर्थ धात करना है। यह बात दो प्रकारका है-एक आत्मघात दूसरा परघात । जिस समय आत्मामें कषायभावोंको उत्पत्ति होती है उसी समय आत्मघात हो जाता है । पश्चात् यदि अन्य जीबकी आयु पूरी हो गयी हो अथवा पापका उदय आया हो, तो उनका भी घात हो जाता है । अन्यथा बायुकर्म पूर्ण न हुआ हो, पापका उदय न आया हो तो कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि उनका घात उनके कमोंके अधीन है। परन्तु आत्मघात तो कषायोंको उत्पत्ति होते ही हो जाता है और आत्म तथा परघात दोनों ही हिंसा हैं । इस प्रकार रागदि कषायभावको हिंसा बताया है। इन रागादिभावोंके सद्भावके कारण ही हिंसा न करनेपर भी हिंसाका सद्भाव बताया है तथा कई भंगों द्वारा हिंसा-अहिंसाका विवेचन किया है।
१. एक व्यक्ति पाप करता है और अनेक व्यक्ति फल भोगते हैं।
२. अनेक व्यक्ति हिंसा करते हैं और एक व्यक्ति फल भोगता है। १. पुरुषार्थसिदधुपाय, पद्य ४४, ४५, ४७ ।
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : ४०७