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निर्धारण नहीं किया जा सकता और न उनके बारह अणुवेक्खा' ग्रन्थको अर्वाचीनता ही सिद्ध की जा सकती है।
स्वामिकार्तिकेयके समयका विचार करते हुए डॉ० ए० एन० उपाध्येने 'बारस - अणुवेक्खा' का अन्तःपरीक्षणकर बतलाया है कि इस ग्रन्थकी २७९ वीं गाथामें 'णिसुनहि' और 'भावहि' ये दो पद अपभ्रंशके आ घुसे हैं, जो वर्तमानकाल तृतीय पुरुषके बहुवचनके रूप हैं । यह गाथा 'जोइन्दु' के योगसारकै ६५ व दोहे के साथ मिलती-जुलती है और दोहा तथा गाथा दोनोंका भाव भी एक है । अतएव इस गाथाको 'जोइन्दु' के दोहे का परिवर्तित रूप माना जा सकता है । यथा
विरला जाणहि तत्तु बहू विरला झार्याह तत्तु जिय
विरला णिसुर्णाह तत्तु | विरला धारहिं तत्तु ॥
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विरला णिसुणहि तन्त्रं विरला जाणंति तच्चदो तच्चं । विरला भावहि तच्च विरलाणं धारणा होदिर ||
अतः इन दोनों सन्दर्भोंक तुलनात्मक अध्ययन के आधारपर कार्तिकेयका समय जोइन्दुके पश्चात् होना चाहिए ।
श्री जुगलकिशोर मुख्तारने डॉ० उपाध्येके इस अभिमतका परोक्षण करते हुए लिखा है कि " यह गाथा कार्तिकेय द्वारा लिखित नहीं है । जिस लोकमानाके प्रकरणमें यह आयी है, वहाँ इसकी संगति नहीं बैठती ।" आचार्य मुस्तारने अपने कथनको पुष्टिके लिए गाथाओंका कम भी उपस्थित किया है । उन्होंने लिखा है- "स्वामीकुमारने ही योगसारके दोहेको परिवर्तित करके बनाया है, समुचित प्रतीत नहीं होता - खासकर उस हालत में जबकि ग्रन्थभरमें अपभ्रंस भाषाका और कोई प्रयोग भी न पाया जाता हो । बहुत सम्भव है कि किसी दूसरे विद्वानने दोहेको गाथाका रूप देकर उसे अपनी ग्रन्थ- प्रतिमें नोट किया हो, और यह भी सम्भव है कि यह गाथा साधारणसे पाठभेदके साथ अधिक प्राचीन हो, और योगेन्दुने हो इसपरसे थोड़ेसे परिवर्तन के साथ अपना उक्त दोहा बनाया हो; क्योंकि योगेन्दुके परमार्थप्रकाश आदि ग्रन्थोंमें और भी कितने ही दाहं ऐसे पाये जाते हैं, जो भावपाडुड तथा समाधितंत्रादिके पञ्चपरसे परिवर्तन करके बनाये गये है और जिसे डॉ० साहबने स्वयं स्वीकार
१. योगसार, पत्र संख्या ६५ ॥
२. कार्तिकेय, वारसवेखा, माया न० २७९ ।
श्रुतभर और सारस्वताचार्य : १३७