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किया है। जब कि स्वामीकुमारके इस ग्रन्थकी ऐसी कोई बात अभी तक सामने नहीं आयी ।" ___ आचार्य मुख्तार साहबका यह निष्कर्ष उचित मालूम होता है, क्योंकि योगसारका विषय क्रमबद्ध रूपसे नहीं है । इसमें कुन्दकुन्दको अनेक गाथाओंका रूपान्तरण मिलता है । कुन्दकुन्दने कर्मविमुक्त आत्माको परमात्मा बतलाते हुए; उसे ज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्ण, चतुर्मुख और बुद्ध कहा है। योगसारमें भी उसके जिन, बुद्ध, विष्णु, शिव आदि नाम बतलाये है। इसके अतिरिक्त जो इन्दुने कुन्दकुन्दके समान हो निश्चय और व्यवहार नयों द्वारा आस्माका कथन किया है। योगसार और परमार्थप्रकाश इन दोनोंका विषय समान होने पर भी योगसार संग्रहग्रन्थ जैसा प्रतीत होता है। इसमें कई तथ्य छूट भी गये हैं । दाहा ९९-१०३ द्वारा सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय संयमका स्वरूप बतलाया है । यहाँ यथाख्यात चारित्रका स्वरूप छूट गया है। अतएव योगसारके दाहेका परिवर्तित रूप कातिकेयानुप्रेक्षा होनेके आधारपर कार्तिकेयको अर्वाचीन बताना युक्त नहीं है। ___ आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने समय-निर्णय करते हुये लिखा है-“मेरो समझमें यह ग्रन्य उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रसे अधिक बादका नहीं, उसके निकटवर्ती किसो समयका होना चाहिये, और उसके कर्ता वे अग्निपुत्र कातिकेय मुनि नहीं हैं, जो साधारणतः इसके कर्ता समझ जाते हैं, और क्रॉच राजाके द्वारा उपसगको प्राप्त हुए थे, बल्कि स्वामीकुमार नामके आचार्य ही हैं, जिस नामका उल्लेख उन्होंने स्वयं 'अन्त्यमंगल' को गाथामें श्लेष रूपसे किया है"। __ आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारके उक्त मतसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कात्तिकेय गृद्धपिच्छके समकालीन अथवा कुछ उत्तरकालोन हैं। अर्थात् वि. सं० को दूसरी-तीसरी शती उनका समय होना चाहिए।
रचना
द्वादशानुप्रक्षामें कुल ४८९ गाथाएं हैं। इनमें अघ्र व, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यस्व, अशुचित्ल, आस्रव, संवर, निजरा, लोक, बोषदुर्लभ और धर्म इन बारह अनुपंक्षाओंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। प्रसंगवश बीन,
१. जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश, पृ. ४९९ । २. भावपाहुर, गाया १४९ तथा योगसार पद्य ९ । ३. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, प. ५०० 1 १३८ : तीथंकर महावीर कौर उनको आचार्य-परम्पा