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सुभासित या सक्तिके रूपमें अनेक गाथाएं' अक्ति की गयी हैं। यहाँ केवल दो गाथाएं उस की जाती है
असिधार व विसं वा दोस पुरिसस्स कुणइ एयभवे ।।
कुणइ हु मुणिणो दोसं अकप्पसेवा भवसएमु॥ तलवार या विष एक हो भवमें मनुष्यको हानि पहुंचाते हैं, पर मुनियों के लिए अयोग्य आहारका सेवन सैकड़ों भवोंमें हानिकर होता है।
छहिय रयणाणि बहा रयणहोवे हरिज कट्ठानि ॥
माणुसभवे वि छंडिय धम्मं भोगेमिलसदि तहा॥ जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीपमें जाकर रलोंका त्यागकर काष्ठ खरीद लेता है, उसी प्रकार मनुष्य भवमें भा कोई धर्म छोड़कर विषय-भोगोंकी अभिलावा करता है। अभिप्राय यह है कि बड़ी कठिनाईसे रत्नद्वीपमें पहुंचनेपर कोई रत्न न खरीदकर ईंधन खरीदे, तो वह व्यक्ति मूर्ख ही समझा जायगा । इसी प्रकार इस अलम्य मनुष्यजन्मको प्राप्तकर रत्नत्रयको साधना न करे और विषयसुखोंमें इस मनुष्यमवको व्यतीत कर दे, तो वह व्यक्ति भी उपर्युक्त व्यक्तिके समान ही मूर्ख माना जायगा ।
कोई व्यक्ति नन्दनवनमें पहुंचकर अमृतका त्यागकर विषपान करे, तो उसे महामर्स ही कहा जायगा। इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्मको छोड़ विषयभोगोंको अभिलाषा करता है वह भो विवेकहीन है और नन्दनवनमें पहुंचे हुए व्यक्तिके समान ही मुखं है। __ इसप्रकार भगवतो आराधनामें मनुष्यभवको सार्थक करनेके लिए सल्लेखना या समाधिमरणको सिद्धिकी आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। शिवार्यने इस अन्यमें प्राचीन समयको अनेक परम्पराओंको निबद्धकर साधक जीवनको सफलतापर प्रकाश डाला है। पाण्डित्य और प्रतिभा
शिवार्य आराधनाके अतिरिक्त तत्कालीन स्वसमय और परसमयके भो ज्ञाता थे। उन्होंने अपने विषयका उपस्थितिकरण काव्यशेलीमें किया है। वे आगम-सिद्धान्तके साथ नोति. गदाचार एवं प्रचलित परम्पराओंसे सुपरिचित थे । आचार्यने जीवनके अनेक चित्रोंके रंग, नाना अनुभूतियोंके माध्यममे प्रस्तुत
१. भगवती आराधना, गाथा १६५६ । २. वही, माया १.२ ।
अतन्नर और मारम्वताचार्य :