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किये हैं । विविष दशाओंमें आयी हुई ये अनुमूत्तियाँ मनोविज्ञानके एक प्रदर्शनी कक्ष में सुसज्जित की जा सकती हैं। आचार्यकी अभिव्यञ्जना- प्रतिमा न तो कथाकारके समान कल्पनात्मक हो है और न कविकी प्रतिभाके समान चमत्कारात्मक हो । तथ्य-निरूपणको यथार्थ भूमिपर स्थित हो आचार्यने संसार, शरीर और मोगोकी निस्तरताको लहरण, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलङ्कारों द्वारा अभिव्यक्तकर ग्राह्यता प्रदान की है। साहित्यनिर्माता के लिए मानव-प्रवृत्तियोक विश्लेषण और प्रस्तुतीकरण में जिस रागात्मकताको आवश्यकता होती है वह रागात्मकता भी आचार्यमें विद्यमान है । शब्द और अर्थका ऐसा रुचिर योग कम ही स्थानों पर पाया जाता है। कतिपय गाथाओं में तो भावोंका इतना सघन सन्निवेश विद्यमान है, जिससे अभिव्यंजनाकोशलद्वारा भाव स्फोटनकी क्रिया उपस्थित्त रहती है ।
आचार्यने निदानका वर्णन करते हुए अपनो अभिव्यञ्जना - कलाका सुन्दर प्रस्तुतीकरण किया है। जिसके मनमें भोगका निदान है वह मुनि नटके समान अपने शील- व्रतका प्रदर्शन करता है । निदान करनेसे भोग-लालसा तुम नहीं हो सकती है। निदान बाँधनेवाला व्यक्ति अहर्निश भोग-वृत्तिको वृद्धिगत करता रहता है । यथा
सपरिग्गहस्स अब्बभचारिणो अविरदस्स से मणमा । कारण सील-वहणं होदि हु ण्डसमण एवं व' ॥ रोगं कंसेज्ज जहा पडियारसुहस्स कारना कोई | तह अण्णेसदि दुमखं सणिदानो भोगत हाए ॥ जह कोढिल्लो अग्ग तप्पंतो व सवसमं लमदि । तह भोगे भुंजंतो स्वणं पि णो उवसम लभदि ॥ कच्छ्रं कंडुयमाणो सुहाभिमाणं करेदि जह दुक्खे | दुक्खे सुहाभिमाणं मेहुण यादीहि कुणदि तहा * ॥
भोग निदान करनेवाले मुनिकं मनमें विषयाभिलाषा है। अतः वह परिही है । उसका मन मैथुनकर्ममें प्रवृत्त होनेकी अभिलाषासे पराङ्मुख नहीं है। अतः वह शरीरसे शील-व्रत धारण करनेवाले नटके समान अन्तरङ्ग में
१. मूकाराधना, शोलापुर संस्करण, दाया नं०-१२४५ ।
२. बड़ी गाथा न०- १२४६
३. वहो, गाथा न०- १२५१ ।
४. वही गाथा न०-१२५२ ।
१३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा