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शरीर, आहार और रसकोलुपताका वर्णन भी उपमाओं द्वारा किया गया है सूक्तिकी दृष्टिसे इस ग्रन्थकी अनेक गाथाएं रसमय एवं बोधोत्पादक है । यहाँ दो-एक गाथा उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते हैं
जिन्मामूलं बोलेइ वेगळ वर-हुओ व आहारो । तत्थे व रसं जाणइ ण य परदो ण वि य से परदो ॥
जिस प्रकार उत्तम जातिका अश्व वेगपूर्वक दौड़ता है, उसी प्रकार जिल्ला भी आहारका रसास्वादन करनेके लिए वेगसे दौड़ती है । यद्यपि जिल्लाका अग्र भाग ही रसास्वा लेता है, तो भी उदरस्थ आहारका अत्यल्प अंश सुखानुभूतिका कारण होता है । आहारका अधिक भाग तो उदरमें समाविष्ट हो जाता है, और उसके उदरस्थ होनेपर रसास्वाद नहीं आता । अतएव रसास्वादजन्य सुखानुभूति अत्यल्प है |
आहा के प्रति गृद्धताका त्यान कराने के लिए आचार्य परिद्री पुरुषको उपमाका प्रयोग करते हैं। उनका कथन है कि आहारलम्पटता अत्यधिक दुखः का कारण है। जिसप्रकार धनादि पदार्थों की चिरकालसे अभिलाषा करनेवाला दारद्री पुरुष दुःख प्राप्त करता है, उसी प्रकार आहारलम्पटी भी । आहारके प्रति साधकको विच. रजन्य वितृष्णाका होना परमावश्यक है - दुक्खं गिद्धीधरथस्माहटतस्स होइ बहुगं च ॥ चिरमाहट्टियदुग्गयचस्स व अण्णमिद्धोए ।
इस गाथामें प्रयुक्त उपमान- उपमेयभाव विषयके स्पष्टीकरणमें सशक्त है । जो क्षपक मृत्यु के समय अनुचित आहारको अभिलाषा करता है, वह मधुलिए तलवारको धारको चाटनेके समान कष्ट प्राप्त करता है ।
महुलिस असिवार लेहइ भुजइ य सो सविसमण्णं || जो मरणदेसयाले पतियज्ञ अकप्पियाहारं ॥
मृत्युके समय आहारको अभिलाषासे संक्लेश परिणाम होते है, जो दुर्गतिका कारण हैं । क्षपक मृत्युके समय यदि आहारको अभिलाषा करता है, तो उसकी यह अभिलाषा विषमिश्रित अन्न अथवा मघुलिप्त तलवारको घारके समान कष्टदायक है |
१. भगवती आराधना गाया १६६१ |
२. भगवती आराधना गाथा १६६३ । ३. वही १६६५ ।
१३० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा