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उन्हें पूर्ण करना साधन है । आमरण सम्यकदर्शनादिकको निर्दोष धारण करना निस्तरण है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यकतप इन चारोंकी उन्नति होनेके लिए पूर्वोक पांचोंको आवश्यकता है । इस प्रकार प्रत्येकमें उद्योतनादिक पांच उपाय मान लेने पर बीस भेद होते हैं। इस भगवती आराधनामें इन सभी भेद-प्रभेदोंका उल्लेख आया है। ___ इस ग्रन्थमें १७ प्रकारके मरण बललाये गये हैं। इनमें पंडितमरण, पंडितपडितमरण और वालपंडितमरणको श्रेष्ट कहा है । पंडितमरणमें भी भक्त प्रतिज्ञामरणको श्रेष्ठ माना गया है। लिंगाधिकारमें आचेलक्य, कोच, देहसे ममत्वत्याग और प्रतिलेखन ये चार निग्रंथलिंगके चिल्ल बताये हैं । अनयिताधिकारमें नाना देशों में विहार करनेके गुणों के साथ अनेक रीति-रिवाज, भाषा
और शास्त्र आदिकी कुशलता प्राप्त करने का विधान है। भावनाधिकारमें तपो. भावना, श्रुतभावना, सत्यभावना, एकस्वभावना और धृतिबलभावनाका प्ररूपण है। सल्लेखनाधिकारमें सल्लेखनाके साथ बाह्य और अन्तरन तपोंका वर्णन किया है। आयिकाओंको संघमें किस प्रकार रहना चाहिए, उनके लिए कोन-कौन विषय कत्र्तव्य हैं तथा करेन-कौनसे कार्य त्याज्य है आदिका प्रतिपादन किया है। मार्गणाधिकारमें आचार्यजीत और कल्पका वर्णन है। इस अधिकारमें आचेलक्यका भी समर्थन किया है। अतः इस ग्रन्धको मान्यता दिगम्बर सम्प्रदायमें रही है। प्रसंगवश ध्यान, परिषह, कषाय, छपकश्रेणी आदिका भा वर्णन है।
धार्मिक विषयके साथ काव्यात्मकता भो इस ग्रन्थमें विद्यमान है। कई ऐसी गाथाएं भी हैं, जिनमें उपमाका प्रयोग बहुत सुन्दर रूपमें किया गया है। अन्तरङ्ग शुद्धि पर बल देते हुए बताया है
घोडयलहिसमाणस्स तस्स अब्भतरम्मि कुधिदस्स।
बाहिरकरणं कि से काहिंदि बणिहुदकरणस्स ।' अर्थात् जैसे घोड़ेको लोद बाहरसे चौकनी दिखलाई पड़ती है, पर भीतरसे दुर्गन्धके कारण महामलिन है, उसी प्रकार जो मुनि बाह्याडम्बर तो धारण करता है, पर अन्तरंग शुद्ध नहीं रखता, उसका आचरण बगुलेके समान होता है।
१. भगवती आराधना, गाथा १३४७ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्म : १२०