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मङ्गलाचरण
तत्त्वार्थ सबके मङ्गलाचरणक विषयम पर्याप्त विवाद रहा । कुछ विद्वानोंका मत था कि सर्वार्थसिद्धिको उत्थानिकाम दिये गये प्रश्नोत्तरको देखते हुए तत्त्वार्थसूत्रकारने मङ्गलाचरण किये बिना ही तत्त्वार्यसूत्रकी रचना की है। 'मोक्षमार्गस्य नतारम् आदि मङ्गल-पद्यको जो तत्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण बताया जाता है वह सर्वार्थसिद्धिके आरम्भमें निबद्ध होने तथा सर्वार्थसिद्धिकारको जसपर व्याख्या उपलब्ध न होनेसे उसोका मङ्गलाचरण है, तत्त्वार्थसुत्रका नहीं। पर इसके विपरीत दूसरे अनेक विद्वानोंका मत है कि सूत्रकारने तत्त्वार्थसत्रके आरम्ममें मङ्गलाचरण किया है और वह 'मोक्षमार्गस्थ नेतारम्' आदि श्लाक उसीका मङ्गलाचरण है । सायोखिमें यह मूल सा : सृत हुआ है। सत्वार्थसूत्रकार आचार्य गपिच्छ परम आस्तिक थे । वे मङ्गलाचरणकी प्राचीन परम्पराका उल्लंघन नहीं कर सकते। अतः 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि पद्य उन्हीं द्वारा तत्त्वायंसूत्रके आरम्भमें निबद्ध मङ्गलाचरण है। टीकाकार पूज्यपाद-देवनन्दिने उसे अपनी टोका सर्वार्थसिद्धिमें अपना लिया है और इसोसे उसको उन्होंने व्याख्या भी नहीं की ।
डॉक्टर दरबारीलाल कोठियाने 'तत्त्वार्थसत्रका मङ्गलाचरण' शीर्षक दो विस्तृत निबन्धोंमें आचार्य विद्यानन्दके प्रचुर ग्रन्योल्लेखों एवं अन्य प्रमाणोंसे सबलताके साथ सिद्ध किया है कि तत्त्वार्थसूत्रके आरम्भमें 'सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः' [११] सूत्रसे पहले मङ्गलाचरण किया गया है और वह उक्त महत्त्वपूर्ण मङ्गलश्लोक ही है, जिसे विद्यानन्दने सूत्रकार एवं शास्त्रकार-रचित 'स्तोत्र' प्रकट करते हुए 'तीर्थोपम', 'प्रथित-पथुपव' और 'स्वामिमोमांसित' बतलाया है । विद्यानन्दके इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि स्वामी समन्तभद्रने इसी मङ्गलश्लोकके व्याख्यानमें अपनी महत्त्वपूर्ण कृति 'आप्तमीमांसा' लिखो और स्वयं विद्यानन्दने भी ससीके व्याख्यानमें आप्तपरीक्षा रची। सूत्रकार एवं शास्त्रकार पदोंसे विद्यानन्दका अभिप्राय तस्वार्थ सूत्रकारसे है, तत्त्वार्थवृत्तिकारसे नहीं है। सर्वार्थसिद्धिमें उसे अपना मङ्गलाचरण बना लिया गया है और इसी कारण उसकी व्याख्या मो नहीं की गयी।
अत: 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मङ्गल-पच तत्वार्थ सूत्रका हो आचार्य गुपिच्छ द्वारा रचित मङ्गलाचरण है।
१. बनेकान्त वर्ष ५, अङ्क ६, ७ व १०, ११, वीर सेवा मन्दिर: सरसावा (सहारनपुर) २, आसपरीक्षा, कारिका ३ एवं १२३, बोर सेवामन्दिर-संस्करग, सन् १९४९ ।
१६८ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा