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रचना-प्रतिभा एवं रचना-शैली
गृपिच्छाचायंक तत्त्वार्थसूत्रका अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि उन्होंने 'षट्खण्डागम', 'कषायपाहुड', 'कुन्दकुन्द-साहित्य', 'भगवत्ती आराधना' 'मूलाचार' आदि ग्रन्थोंका सम्यक् परिशोलन कर इस सूत्रग्रन्थको रचना की है । द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोगका कोई भी विषय उनसे छूटने नहीं पाया है । आधुनिक विषयोंको दृष्टि से भूगोल, खगोल, आचार, अध्यात्म, द्रव्य, गुण, पर्याय, पदार्थ, सृष्टिविद्या, कर्म-विज्ञान आदि विषय भी चर्चित हैं। आगमके अन्य प्रतिपाद्य पदार्थो का भी प्रतिपादन इस सत्रग्रन्थ में पाया जाता है । अतएव गृपिच्छाचार्य श्रुतघरपरम्पराके बहुन आचार्य हैं। अनेक विषयोंको संक्षेपमें प्रस्तुत कर 'गागरमें सागर' भर देने की कहाक्त उन्होंने चरितार्थ को है।
शैलीको दृष्टिसे यह ग्रन्थ वैशेषिकदर्शनके वंशेषिकसत्रशैलीमें लिखा गया है । वैशेषिकसूत्रोंमें जहाँ अपने मन्तव्यके समर्थन हेतु तर्क प्रस्तुत किये गये हैं वहाँ तत्त्वार्थसूत्रमें भी सिद्धान्तोंके समर्थनमें तर्क दिये गये हैं।'
सूत्रशैलोकी जो विशेषताएं पहले कही जा चुकी हैं, वे सभी विशेषताएं इस सूत्रपन्यमें विद्यमान हैं । यह रचना इतनी सुसम्बद्ध और प्रामाणिक है कि भगवान महावीरको द्वादशाशवाणीके समान इसे महत्व प्राप्त है । गृद्धपिच्छाचार्य स्वसमय और परसमयके निष्णात जाता थे। उन्होंने दार्शनिक विषयोंको सत्रशैलीमें बड़ी स्पष्टताके साथ प्रस्तुत किया है । संस्कृत-भाषामें सत्रग्रन्थकी रचनाकर इन्होंने जैन परम्परामें नये युगका आरम्भ किया है। ये ऐसे श्रुतधराचार्य हैं, जिन्होंने एक ओर नवोपलब्ध दृष्टि प्राप्तकर परम्परासे प्राप्त तथ्योंको युगानुरूपमें प्रस्तुत किया है तो दूसरी ओर सांस्कृतिक और आगमिक व्यवस्थाके दायित्वका निर्वाह भी भलीभाँति किया है । फलतः इनके पश्चात् संस्कृत भाषामें भी दार्शनिक, सैद्धान्तिक और काव्यादि ग्रन्थोंका प्रणयन हुआ।
१. देखिए त. सू० १-३२, ५-३२, ५-३३, १०-६,७,८ आदि सूत्र ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : १६९