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श्रीदत्ताय नमस्तस्मै कण्ठीरवायिर्स येन
मैं उन श्रीदत्तके लिये नमस्कार करता है, जिनका शरीर तपोलक्ष्मीसे अत्यन्त सुन्दर है और प्रवादरूपी हस्तियोंके भेदन में सिंहके समान थे ।
तपः श्रीदी समर्तये । प्रवादीभ प्रभदने' ||
श्रीवस बादी और दार्शनिक विद्वान थे । आचार्य विद्यानन्दने इनको ६३ वादियोंको पराजित करनेवाला लिखा है। विक्रमकी छठी शतके विद्वान देवनन्दिते जैनेन्द्रध्याकरणमें 'गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रिया ( १२४)३४) सूत्रमें श्रीदत्तका उल्लेख किया है । वेवनन्दि द्वारा उल्लिखित, आदिपुराण तथा तस्वार्थश्लोकवातिकमें निर्दिष्ट श्रीदत्त एक ही हों, तो इनका समय देवनन्दसे पूर्व अर्थात् वि० सं०की चौथी पांचवीं शती होना चाहिए। जल्पनिर्णय नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थका इन्हें रचयिता भी कहा गया है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थ लोकवास्तिक पृ० २८० पर लिखा है
द्विप्रकारं जग जल्पं तत्व प्रातिभगोचरम् | त्रिषष्ठेदिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥
कुमारसेनगुरु
चन्द्रोदय ग्रन्थके रचयिता प्रभाचन्द्रके आप गुरु थे । आपका निर्मल यश समुद्रान्त व्याप्त था ।
आकूपारं यशो लोके गुरोः कुमारसेनस्य
प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम् । विश्वरत्यजितात्मकम् ॥
अर्थात् कुमारसेन गुरुका यश इस संसार में समुद्रपर्यन्त सर्वत्र विचरण करता है, जो प्रभाचन्द्रनामक शिष्यके उदयसे उज्जवल है, तथा जो अविजित रूप है- किसीके द्वारा जीता नहीं जा सकता है |
चामुण्डरायपुराण के पन्द्रहवें पद्यमें भी इनका स्मरण किया गया है।
इससे ज्ञात होता है कि कुमारसेनगुरु बड़े हो यशस्वी सारस्वत थे । डॉ० ए० एन० उपाध्येने इनका परिचय देते हुए जैनसंदेशके शोधांक १२ में लिखा है— कि ये मूलगुण्डनामक स्थानपर आत्मत्यागको स्वीकार करके 'कोप्पणाद्रि' पर व्यानस्थ हो गये और समाधिमरणपूर्वक स्वर्गलाभ किया ।' इनके सम्बन्ध दर्शनसार में बताया है—
१. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण, ११४५ । २. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण ११३८ ।
घर और सारस्वताचार्य : ४४९