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करते हैं । तथा सभी भाषा और सम्प्रदायोंके कवियों द्वारा उनका आदर किया जाना बताते हैं । उद्योतनसूरिने इनका उल्लेख रविषेणसे पहले किया है । उससे अनुमान है कि आचार्य रविषेणसे वराङ्गचरितकार पूर्ववर्ती हैं और अधिक प्रसिद्ध रहे होंगे । अतः कहा जा सकता है कि जेन संस्कृत-प्रबन्ध-काव्यके ये ही आद्य रचयिता है। जिस प्रकार आचार्य समन्तभद्र संस्कृतके आद्य स्तुतिकार हैं, उसी प्रकार जटासिह्नन्दि आदि प्रबन्ध-काव्यरचयिता हैं ।
पद्मचरित और वराङ्गचरित इन दोनोंकी शैली और स्थापत्य के अध्ययन से ऐसा भी अवगत होता है कि वराङ्गचरित पद्मचरितके पश्चात् लिखा गया है । यतः पद्मचरितका स्थापत्य पुराणका है, तो वराङ्गचरितका स्थापत्य पुराणकाव्यका है। पुराण और पुराण- काव्यमें पर्याप्त अन्तर है । पुराणमें कथा सर्ग - बद्ध होती है और साथ ही उसमें सानुबन्धता पायों जाता है। वराङ्गचरितकी कथा में अनुबन्धों की कमी है। अतः हमारा अनुमान है कि बरांगचरित पद्मचरितसे कम-से-कम बोस वर्ष बाद लिखा गया है। संस्कृत काव्यक्षेत्र में रामायण, व महाभारतके पश्चात् अलंकृतकाव्यों का प्रादुर्भाव होने लगा था और भारवि जैसे कवि किरातार्जुनीय जैसे काव्योंका प्रणयन कर चुके थे । वराङ्गचरित पर 'किरात' के स्थापत्यका गहरा प्रभाव है । छन्दों का प्रयोग तो 'किरात' के समान है ही, पर युद्ध और वस्तु वर्णन भी 'किरात' के समकक्ष है। अतएव जटासिंहनन्दिका समय भारविसे कुछ पश्चादूवर्ती अर्थात् ७वीं शताब्दीका अन्तिम पाद होना चाहिये | उद्योतनसूरि के निर्देशले ये ९ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती हैं। अतएव इनका समय ७वींका उत्तरार्ध एवं वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है ।
१. नयसेनने धर्मामृत के प्रारम्भ में नदम पञ्चसे लेकर उन्नतालीसवें पच तक गुरुपरम्पराका स्मरण किया है। यह निम्न प्रकार है- अबलि गुणधरभट्टारक, आर्थमंक्ष, नागहस्ति, घरसेनाचार्य, पुष्पदन्त भूतबल, जयनन्द कुन्दकुन्दाचार्य, जटासिंहनन्दि, कूधी भट्टारक, समन्तभद्र, पूज्यपाद, विद्यानन्द, सिद्धसेन श्रुतकीर्ति, प्रभाचन्द्र, जिनसेन पण्डिल, यतिवृषभ, शुभचन्द्र, सिद्धान्तदेव, रामनन्दि सैद्धान्तिक जिनसेनाचार्य, इन्द्रसेन, भेरुण्ड पण्डित, सिद्धातेष, वादिराज, मेघचन्द्र, कीर्तिदेव
राजसिह, पचनन्दि, सागरचन्द, वासपूज्य भट्टारक, प्रभाचन्द्र भट्टारक. चारुसेनाचार्य अमोघचन्द्र, रामसेनवृत्ति, कनकनन्दि, अकलंक देव, माघनन्दि, पम्प, रन्न, जन्न और गुणधर्मका स्मरण किया है। नयसेनका प्रस्तुत ग्रन्थ शक सं० १०३७ नन्द संवत्सर के भाद्रपद के शुक्लपक्ष में हस्तार्क दिनको समाप्त हुआ हूँ । प्रन्धका रचनाकाल ग्रन्थमें अंकित है ।
२९४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा