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पुरानी कशड़में दो पंक्तिका एक अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसमें लिखा है कि "वावय्यने जटासिंहनन्द्याचार्यके पदचिन्हों को तैयार कराया" । "
इससे विदित है कि जटासिंहनन्द्याचार्यने 'कोप्पल' में समाधिमरण धारण किया था। डॉ० उपाध्येका अनुमान है कि ये जटासिह्नन्दि ही प्रस्तुत महाकवि हैं। कसाहित्य में आये हुये इनके विविध उल्लेख इन्हें कर्नाटक अधिवासी सिद्ध करते हैं। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि कोप्पलमें इन्होंने अपना अन्तिम जीवन का दो रित भागे हुये वर्णनोंसे भो ये दाक्षिणात्य सिद्ध होते हैं ।
स्थितिकाल
ग्रन्थकार अपने परिचय और ग्रन्थरचना - समय के सम्बन्ध में मौन हैं। उत्तरकालीन लेखकोंके उल्लेखोंके आधारपर ही इनके समयका अनुमान किया जाता है । उद्योतनसूरिकी 'कुवलयमाला', जिनसेन प्रथमके 'हरिवंशपुराण' एवं जिनसेन द्वितीय के 'आदिपुराण' के उल्लेखों के अतिरिक्त उत्तरवर्ती पम्प, रायमल्ल के मन्त्री और सेनापति चामुण्डराय, धवल, नयसेन, पार्श्वपण्डित, महाकवि जन, गुणवर्म, कमलभव एवं महाबल कवियोंने भी वराङ्गवरित या जटाचार्य अथवा दोनोंका स्मरण किया है । अतएव यह निष्कर्ष निकालना सहज है कि जटाचार्य और उनके बराङ्गचरितकी ख्याति ई० सन् को आठवीं शती के पूर्व ही हो चुकी थी । यतः उद्योतनसूरिका समय ई० सन् ७७८ है । जिनसेन प्रथमने हरिवंशकी समाप्ति सन् ७८३ ई० में की थी। आदिपुराण (८३८ ई०) में जिनसेन द्वितीयने जटाचार्यके जिस स्वरूपका निर्देश किया है, उस स्वरूपसे प्रतीत होता है कि इनकी लहाती हुई जटाएँ लम्बी-लम्बी थीं। इसी कारण ये जटिल या जटाचार्य कहे जाते थे । इसके पश्चात् तो जटाचार्य और उनके बराङ्गचरितकी ख्याति इतनी बढ़ी कि १०वीं शताब्दी के कन्नड़ महाकवि पम्पने इनका आदर पूर्वक स्मरण किया और चामुण्डरायने तो वराङ्गचरितके उद्धरण हा दे डाले हैं । ११ वीं और १२ वीं शती के अपभ्रंशके महाकवि ववल और कन्नड़ के महाकवि नयसेन ने भी इनका स्मरण किया है । १३ वीं शती में वराङ्गचरित कवियोंका आदर्श काव्य बन गया था । फलतः पार्श्वपण्डित ( ई० १२०५) जन्न ( ई० सन् १२०९), गुणवमं ( ई० १२३०), कमलभव ( अनुमानत: ई० १२३५) और महाबल ( ई० १२५४) नं गौरवके साथ इनका स्मरण किया है। ये उल्लेख वराङ्गचरित और उसके कर्त्ता जटाचार्य की व्याति एवं लोकप्रियताको प्रकट
१. वराङ्गचरित प्रस्तावना, १० ६३ ।
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श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २९३