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काव्यानुचिन्तते यस्य जटाः प्रबलवृत्तयः ।
अर्थानस्मान् वदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् । जिनकी जटारूप प्रबल-युक्तिपूर्ण वृत्तियाँ-टोकाएँ काव्योंके अनुचिन्तनमें ऐसी शोभायमान होती थी, मानों हमें उन काव्योंका अर्थ ही बतला रही हैं, इस प्रकारके वे आचार्य जटासिंह हमलोगोंको रक्षा करें।
उद्योतनसूरिने अपनी कुबलयमालामें वराङ्गचरितके रचयिताके रूपमें जटाचार्यका उल्लेख किया है ।
जेहि कार रमणिज्जे बरंग-पउमाण-चरिय वित्थारे ।
कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो अडिय-रविसेणे ॥२ इसी प्रकार धवल कविने भी जटाचार्यका आदर पूर्वक स्मरण किया है
मुणि महसेणु सुलोयणु जेण पउमरिउ मणि रविसेणेण ।
जिणसेणेण हरिवंसु पवित्तु जडिल मुणिणा बरंगचरित्त ।' चामुण्डरायने चामुण्डपुराणमें जटासिंहनन्दि आचार्यका वर्णन किया है और इसमें उन्होंने वराङ्गचरितके रचयिताके रूपमें जटासिंहनन्दिको माना है। जीवन-परिचय ___डॉ० ए० एन० उ'राध्येने भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूनाकी पत्रिका १४ वौं जिल्दके प्रथम-द्वितीय अंकमें वराङ्गचरित और उसके कर्ता जटासिंहनन्दिपर विस्तृत शोधनिबन्ध प्रकाशित किया था । तदनन्तर उन्हीं द्वारा सम्पादित उक्त ग्रन्थ सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ | इसकी प्रस्तावनामें आपने लिखा है
"किसी समय निजाम स्टेटका 'कोपल' ग्राम, जिसे 'कोपण' भी कहते हैं, संस्कृतिका एक प्रसिद्ध केन्द्र था। मध्यकालीन भारतमें जैनोंमें इसकी अच्छी स्याति थी और आज भी यह स्थान पुरातन-प्रेमियोंके स्नेहका भाजन बना हआ है। इसके निकट पल्लकोगण्डु नामकी पहाड़ीपर अशोकका एक अभिलेख उत्कीणित है, जिसके निकट दो पद-चिह्न अंकित हैं। उनके ठीक नीचे
१. आदिपुराण १।५। २. कुवलयमाला, सिंथो सीरिज, अनुच्छेद छः पृ. ४ । ३. सी० पी० और परारको संस्कृतप्रतियोंका कैटलॉग, पृ० ७६४ । २९२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा