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श्री जुगलकिशोर मुस्ताग्ने इस मतकी समीक्षा की है।"
तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता के सम्बन्धमें एक अन्य मत्त यह है कि वाचक उमास्वाति इस सूत्रग्रन्थके रचयिता हैं । पण्डित सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन ) की प्रस्तावना में बाचक उमास्वातिको तत्त्वार्थसुत्रका कर्ता माना है, गुद्धपिच्छ उमास्वातिको नहीं । ये कहते हैं कि गृद्धपिच्छ उमास्वाति नामके आचार्य हुए अवश्य हैं, पर उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र या तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रको रचना नहीं की है। उन्होंने इस सूत्र ग्रन्थका उल्लेख 'तत्त्वार्थाधिगम' शास्त्र के नामसे किया है । पर यह नाम तत्त्वार्थ सूत्रका न होकर उसके 'तत्त्वार्थाधिगम' भाष्यका है ।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्यको रचना के पूर्व तत्त्वार्थ सूत्रपर अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी थीं । सर्वार्थसिद्धिका निम्न सूत्र तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में कुछ परिवर्धनके साथ पाया जाता है, जिससे भाष्य की सर्वार्थसिद्धिसे उत्तरकालीनता अवगत होती है
(क) मतिश्रुतयन्धिदत्येषु
(ख) मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्व सर्वपर्याषु ।
यहाँ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठकी अपेक्षा द्रव्यपदके साथ विशेषणरूप से 'सर्व' पद स्वीकार किया गया है। किन्तु जब वे ही भाष्यकार इस सूत्र के उत्तरार्धको ११२० के भाष्य में उद्धृत करते हैं तो उसका रूप सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ ले लेता है । यथा--'अत्राह्मतिश्रुतयोस्तुयविषयत्वं वक्ष्यति द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु इति ।'
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इससे ज्ञात होता है कि भाष्य के पूर्व तत्त्वार्थ सूत्रपर सर्वार्थसिद्धि टीका लिखी जा चुकी थी और उसमें तत्त्वार्थ सूत्रका एक सूत्रपात्र निर्धारित किया जा चुका था । सिद्धसेनगण और हरिभद्रने भी तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके इस अंशको इसी रूपमें स्वीकार किया है । अब प्रश्न यह है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकारने जब उल्लिखित सूत्र के उत्तरार्धका 'सर्वद्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु' पाठ स्वीकार किया, तब उसे उद्धृत करते समय उसमें से 'सर्व' पद क्यों छोड़ दिया ? यदि 'सर्व' पदको 'द्रव्य' पदके विशेषण के रूपमें आवश्यकता थी तो उन्होंने उद्धृत करते समय क्यों नहीं इस बातका ध्यान रखा ? यह ऐसा प्रश्न
१. जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश, पृ० १०२ १०५ १
२. सर्वार्थसिद्धि १२६ ।
३. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य- १३२७ ।
४. बही, ११२० भाष्य |
१४८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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