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विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायगा
१. आगमके मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन ।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शनविषयक स्वसन्त्र ग्रन्थोंका निर्माण ।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध ग्रन्थोंका प्रणयन और परम्परासे प्राप्त सिद्धान्तोंका पल्लवन । ___४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन । ६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरित और बाख्यानोंका पथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, समसामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टिव्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोंका सयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन ।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुतघराचार्यो से की जा सकती है । विभिन्न विषयक अन्य-रचनामें ये अवितोय हैं।
आचार्य समन्तभद्र समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां स्फुरन्ति यत्रामलसूक्ति रश्मयः । वअन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः' ।। समन्तभद्रादिमहाकवीश्वराः कुवादिविद्याजयलब्धकीर्तयः । सुतकशास्त्रामृतसारसागरा मयि प्रसीदन्तु कवित्वकांक्षिणि ।।
श्रीमत्समन्तभद्रादिकविकुअरसञ्चयम् ।
मुनिवन्धं जनानन्दं नमामि वचनश्रिये ॥ १. मानाणंव १४१ २. बर्द्धमानसरि, वराङ्गचरित, सोलापुर-संस्करण ११७ ३. बलकारचिन्तामणि ॥३
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : १७१