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सारस्वताचार्यों में सबसे प्रमुख और आद्य आचार्य समन्तभद्र है। जिस प्रकार गृद्धपिच्छाचार्य संस्कृतके प्रथम सूत्रकार है, उसी प्रकार जैन वाङ्मयमें स्वामी समन्तभद्र प्रथम संस्कृत-कवि और प्रथम स्तुतिकार हैं। ये कवि होने के साथ प्रकाण्ड दार्शनिक और गम्भीर चिन्तक भी हैं। इन्हें हम श्रुतधर आचार्य परम्परा और सारस्वत आचार्यपरम्पराको जोड़नेवाली अटूट श्रृंखला कह सकते हैं। इनका व्यक्तित्व श्रुतघर आचार्यों से कम नहीं है ।
स्तोत्र-काव्य का सूत्रपात आचार्य समन्तभद्र से ही होता है। ये स्तोत्र - कवि होने के साथ ऐसे तर्ककुशल मनीषी हैं, जिनकी दार्शनिक रचनाओंपर अकलंक और विद्यानन्द जैसे उद्भट आचार्यों ने टीका और विवृत्तियां लिखकर मौलिक ग्रन्थ रचयिताका यश प्राप्त किया है। वीतरागी तीर्थंकरकी स्तुतियों में दार्शनिक मान्यताओं का समावेश करना असाधारण प्रतिभाका हो फल है ।
आदिपुराण वायं जिहें
वाग्मिल कवित्व और गमकत्व इन चार विशेषणोंसे युक्त बताया है । इतना ही नहीं, जिनसेनने इनको कवि-वेधा कहकर कवियोंको उत्पन्न करनेवाला विधाता भी लिखा है
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कवीनां गमकानाञ्च वादिनां वाग्मिनामपि ।
यशः सामन्तभद्रीय मूर्ध्नि नमः समन्तभद्राय महते यद्वचोच पातेन निभिन्ना: कुमताद्रयः ।। "
चूडामणीयते ॥ कविवेधसे ।
मैं कवि समन्तभद्रको नमस्कार करता हूँ, जो कवियोंसे ब्रह्मा हैं, और जिनके वचनरूप वज्रपातसे मिथ्यामतरूपी पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं ।
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स्वतन्त्र कविता करनेवाले कवि शिष्योंको मर्मतक पहुँचानेवाले गमक, शास्त्रार्थ करनेवाले वादी और मनोहर व्याख्यान देनेवाले वाग्मियोंके मस्तक पर समन्तभद्रस्वामीका यश चूड़ामणिके समान आचरण करनेवाला है । वादीभसिंहने अपने 'गद्यचिन्तामणि' ग्रन्थमें समन्तभद्रस्वामीको तार्किक प्रतिमा एवं शास्त्रार्थं करनेकी क्षमताकी सुन्दर व्यंजना को है । समन्तभद्रके समक्ष बड़े-बड़े प्रतिपक्षी सिद्धान्तोंका महत्त्व समाप्त हो जाता था और प्रतिवादी मौन हाकर उनके समक्ष स्तब्ध रह जाते थे ।
सरस्वतीस्वैरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः ।
जयन्ति वाग्वज्रनिपातपाटितप्रती पराद्धान्तमहीघ्रकोटयः * ॥
१. महापुराण भाग १, ११४३-४४ ।
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२. गद्य विन्तामणि ।
१७२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा