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भट्टाकलङ्क, श्रीपाल और पात्रकेसरी आचार्यों के निर्मल गुण विद्वानोंके हृदयमें मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखसंख्या ५४ में "विलक्षणकदर्थन'के रचयिताके रूपमें पात्रकेसरीका स्मरण किया गया है
महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् ।
पद्मावती सहाया विलक्षण-कदर्थन कर्तुम्॥ प्रस्तुत मल्लिषेण-प्रशस्ति शक संवत् १०५० वि० सं० ११८५की है। अत: यह स्पष्ट है कि आचार्य जिनसेन तथा मल्लिगेण प्रशस्तिके लेखकके समय में पात्रकेसरीका यश पर्याप्त प्रसृत था । जोवन-परिचय
पात्रकेसरीका जन्म उच्चकुलीन ब्राह्मण वंशमें हुआ था। सम्भवतः ये किसी राजाके महामात्यपदपर प्रतिष्ठित थे। ब्राह्मण समाजमें इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। आराधनाकथा-कोषमें लिखा है-"अहिच्छत्रके अनिपाल राजाके राज्यमें ५०० ब्राह्मण रहते थे। इनमें पात्रकेसरी सबसे प्रमुख थे । इस नगरमें तीर्थकर पार्श्वनाथका एक विशाल चैत्यालय था । पात्रकेसरी प्रतिदिन उस चैत्यालयमें जाया करते थे। एक दिन वहां चारित्रभषण मुनिके मखसे स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' स्तोत्रका पाठ सुनकर ताश्चर्यचकित हए। उन्होंने मुनिराजसे स्तोत्रका अर्थ पूछा, पर मुनिराज अर्थ न बतला सके। पात्रकेसरीने अपनी विलक्षण प्रतिभा द्वारा स्तोत्र कण्ठस्थ कर लिया और अर्थ विचारने लगे । जैसे-जैसे स्तोत्रका अर्थ स्पष्ट होने लगा वैसे-वैसे उनकी जैन. तत्त्वोंपर श्रद्धा उत्पन्न होती गयी और अन्तमें उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया । राज्यके अधिकारी पदको छोड़ उन्होंने मुनिपद धारण कर लिया। पर उन्हें हेतुके विषयमें सन्देह बना रहा और उस सन्देहको लिए हुये सो जाने पर रात्रिके अन्तिम प्रहरमें स्वप्न आया कि पाश्वनाथके मन्दिरमें 'फण' पर लिखा हुआ हेतुलक्षण प्राप्त हो जायगा। अतएव प्रातःकाल जब वे पाश्वं. नायके मन्दिर में पहुंचे तो वहाँ उस मूतिके 'फण' पर निम्न प्रकार हेतुलक्षण प्राप्त हुआ
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ पात्रकेसरी हेतुलक्षणको अवगत कर असन्दिग्ध और दीक्षित हुए । १. जैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या ५४, पद्य १२, पृ० सं० १०३ । २३८ : वीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा