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८. अहंत्कर्मभूभृभेतृत्वसिद्धि ९. अर्हन्मोक्षमार्गनेतृत्वसिद्धि
१०. अहंद्वन्द्यत्वसिद्धि २. प्रमाणपरीक्षा'
प्रमाणपरीक्षामें प्रमाणका स्वरूप, प्रामाण्यकी उत्पत्ति एवं ज्ञप्ति, प्रमाणको संख्या, विषय एवं उसके फल पर विचार किया गया है। भारम्भमें 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः। सन्निकर्षादिरज्ञानमपि प्रमाणं स्वार्थप्रमिती साधकतमत्वात्, इति नाशंकनीयं, ग. प्रमितो गामकाममाजवा"। अर्थात् सम्यग्ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि प्रमाणत्वकी उपपत्ति अन्यथा नहीं हो सकती। सन्निकर्षादि अज्ञानमय होनेके कारण प्रमाण नहीं हैं, और न वे अर्थक्रियाके प्रति साधकतम ही हैं, जो स्वप्रमितिके प्रति साधकतम होता है, वही प्रमाण हो सकता है, अन्य नहीं। इस प्रकार ज्ञानको प्रमाण सिद्ध कर सन्निकर्ष, इन्द्रिय आदिका खण्डन किया है। प्रमाणके प्रसंगमें ताद्प्य, तदुत्पत्ति और तदाकारताका भी निरसन किया गया है । विद्यानन्दने अपने समालोचनको पुष्ट बनानेके हेतु 'उक्तञ्च' कहकर अन्य व्यक्तियोंकी कारिकाएं भी उद्धृत की हैं । ___इस सन्दर्भ में सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञानको प्रामाणताका भो विचार किया गया है। सौगत अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव आदिके कारण निर्विकल्पकको प्रमाण मानता है । विद्यानन्दने इस सन्दर्भमें सौगतमतको सुन्दर समीक्षा की है और स्वलक्षणका भी निरसन किया है 1 क्षणिकवादी बौद्ध स्थलपदार्थोंका अस्तित्व स्वीकार न कर स्वलक्षण परमाणु पदार्थको ही ज्ञानका विषय मानता है । ब्रह्माद्वैतवाद और स्वलक्षणवादको समीक्षा कर स्वप्नज्ञानकी प्रामाणिकताका भी निरसन किया है। 'नेक स्वस्मात्प्रजायते' को उद्धत करते हुए ज्ञानके ज्ञानान्तरवेद्यत्वका खण्डन किया है। ___ कपिलमत-समीक्षा और तत्वोपप्लवादका विचार-विमर्श करते हुए अनुमान
और आगम प्रमाणको सिद्धि की मयी है । यहाँ उपमान और अर्थापत्तिका प्रत्यभिज्ञान और अनुमान में अन्तर्भाव दिखलाया गया है । 'प्रमेयवैविध्यात प्रमाणवविध्यम्' की समीक्षा करते हुए स्वार्थानुमान और परार्थानुमानको सिद्धि की गयी है। प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका निरूपण करते हए अवग्रह
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१. रानातन जैन ग्रन्थमालामें प्राप्तमीमांसाके साथ प्रकाशित तथा डॉ० दरबारीलाल
कोठिया द्वारा सम्पादित एवं वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित, १९७३ । २. प्रमाणपरीक्षा, सनातन जैन ग्रन्थमाला संस्करण, पु० ५१ ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३५५