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ईहा, अवाय और धारणाका विचार किया गया है। "साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम्" का विचार करते हुए व्याप्ति, साध्य-साधनका स्वरूप निर्धारण किया गया है। हेतुके रूप्य और पाँचरूप्यकी समीक्षा करते हुए अन्यथानुपपन्नत्वको ही हेतुका निर्दोष स्वरूप बताया है। पात्रकेसरीके त्रिलक्षणकदर्थनका उद्धरण देते हुए लिखा है.--
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं ।। इसीके अनुकरणपर विद्यानन्दने पांचरूप्यके खण्डनके लिए निम्न कारिका रची है
अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः कि पंचभिः कृतं ।।
नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतं' ।। पदार्थके स्वरूपका विवेचन करते हुए उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त पदार्थको स्थिति स्वीकार की है। प्रमाणके फलका विवेचन करते हुए उसे प्रमाणसे कञ्चित् भिन्न और कञ्चित् अभिन्न बताया है । अन्तमें ग्रन्थका सार और उसका उपयोग बताते हुए लिखा है
इति प्रमाणस्य परीक्ष्य लक्षणं विशेषसंख्याविषयं फलं ततः ।
प्रबुध्य तत्त्वं दृढशुद्धदृष्टयः प्रयान्तु विद्याफलमिष्टमुच्चकैः ।। ३. पत्रपरीक्षा
इस लघुकाय ग्रन्थमें विभिन दर्शनोंको अपेक्षा 'पत्र' के लक्षणोंको उद्धृत कर जेन दृष्टिकोणसे 'पत्र' का लक्षण दिया गया है तथा प्रतिक्षा और हेतु इन दो अवयवोंको हो अनुमानका अंग बताया है। प्रतिपाद्याशयानुरोधसे दशावयवोंका भी समर्थन किया है। पर ये दश अवयव न्यायदर्शनप्रसिद्ध दशावयवोंसे भिन्न हैं। पत्रका लक्षण बताते हुए लिखा है-"पुनः प्रसिद्धावयवत्वादिविशेषणविशिष्ट वाक्यं पत्रं नाम, तस्य श्रुतिपथसमधिगम्यपदसमुदायविशेषरूपत्वात्, पत्रस्य तद्विपरीताकारस्वात् । न च यद्यतोऽन्यत्तत्तन व्यपदिश्यतेऽतिप्रसंगात्। नीलादयोपि हि कंबलादिभ्योऽन्ये नाते नीलादिव्यपदेशहेतवः, तेषां तद्व्यपदेशहेतुतया प्रतीयमानत्वात्, किरीटादीनां पुरुषे तद्व्यपदेशहेतुत्ववत्, तद्योगात्तत्र मत्व१, प्रमाणपरीक्षा, सनातन ग्रन्थमाला संस्करण, पृ०७२। २. वही, पृ० ८०। ३, आप्तपरीक्षाके साथ सनातन जैन प्रत्यमाला द्वारा सन् १९१३ में प्रकाशित । ३५६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा