________________
है । मिथ्यात्व आदि १३ गुणस्थान मी पौद्गलिक तथा अचेतन हैं । देह-चेतनको एक मानना मोहका परिणाम है । जो इन्द्रियगोचर है, वह सब आत्मबाह्य है । जीव कभी कर्मरूप और कर्म कभी जोवरूप नहीं होता है ।
तृतीय अधिकारों साचन-कारली सुलूग अतिशयोका निरूप वर्णन आया है। निश्चय और व्यवहारनयकी दृष्टिसे आत्मा और कर्मके कर्तृत्व और भोक्तृत्वपर प्रकाश डाला गया है। एकको उपादानरूपसे दूसरेका कर्ता मानने तथा एकके कर्मफलका दूसरेको भोका माननेपर, जो आपत्ति प्रस्तुत होती है, उसे दर्शाया है । कषायस्रोतसे बाया हुमा कर्म हो जीवमें स्थित होता है। तदनन्तर पाही जीव कर्मसंतति हेतु इन्द्रियजन्य सुख, कर्मों के आसवबन्धके कारण आदिका कथन किया है। ___ चतुर्ध अधिकारमें बन्धका लक्षण लिखकर उसे जीवको पराधीनताका कारण बताया है। बन्धके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारों भेदोंका निर्देश करते हए कौन जोव कर्म बांधता है कोन नहीं बांधता, इसका सोदाहरण स्पष्टोकरण किया है। इसी प्रकार रागी, वीतरागी, झानी और अज्ञानीके कर्मबन्धके होने न होनेका भी निर्देश किया है। ज्ञानी जानता है, अज्ञानी वेदता है । इसलिए एक अबन्धक और दूसरा बन्धक होता है। पर द्रव्यगत दोषसे कोई वीतरागी बन्धको प्राप्त नहीं करता ।। __ पञ्चम अधिकारमें संवरका लक्षण बतलाकर द्रव्य-भावके भेदसे उसके दो भेद बतलाये हैं । कषायोंके निरोधको भावसंवर और कषायोंका निरोष होनेपर द्रव्यकोंके आस्रवविच्छेदको द्रव्यसंवर बतलाया है। कषाय और द्रव्यकर्म दोनोंके अभावसे पूर्ण शुद्धि प्राप्त होती है । इस प्रकार इस अधिकारमें संवरका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है।
षष्ठ अधिकारमें निर्जरातत्त्वका कथन आया है। निर्जराकी नियुक्तिके पश्चात् उसके पाकजा और अपाकजा दो भेद बतलाये हैं। संवरके बिना निर्जरा अकार्यकारी हैं । ध्यान और तप द्वारा योगी कर्मो को निर्जरा करता है और कर्ममलको धो डालता है। __ सप्तम अधिकारमें मोक्षतत्त्वका निरूपण किया गया है । आत्मा शुद्धात्माके ध्यान बिना मोहादिदोषोंका नाश नहीं कर पाता । ध्यानवजसे कर्मग्रन्यका छेदन सम्भव है । इसी अधिकारमें जीवके शुद्ध और अशुद्ध इन दो भेदोंका कथन भी आया है । कमसे युक्त संसारी जीव अशुद्ध है और कर्मरहित मुक्त जीव शुद्ध है । शुद्ध जीवको 'अपुनभंद' कहनेके हेतुका निर्देश किया है। साथ ही मुक्तिमें आत्मा किस रूपमें निवास करती है, यह भी बतलाया है। ध्यान
३८६ : तीर्थका महार और उनकी प्राचार्य-परम्परा