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एकान्तपर्यायवादी बौद्ध एवं सर्वथा उभयवादी वैशेषिकका तर्कपूर्वक विवेचन करते हुए निराकरण किया गया है । प्रागभाव, प्रध्वंसामाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभावका सप्तभंगीन्यायद्वारा समर्थन कर वीरशासनकी महत्ता प्रतिपादित की है । सर्वथा असवाद, द्वैतवाद, कर्मद्वैत फलद्वैत, लोकद्वैत प्रभृतिका निरसन कर अनेकान्तात्मकता सिद्ध की गयी है। इसमें अनेकान्तवा का स्वस्थ स्वरूप विद्यमान है । उदाहरणके लिए" द्रव्यपर्यायोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः । परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ॥ संज्ञासंख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः ।
प्रयोजनादिमेदाच्च तनानात्वं न सर्वथा ॥
द्रव्य और पर्याय कथंचित् एक है, क्योंकि वे भिन्न उपलब्ध नहीं होते तथा वे कथंचित् अनेक है क्योंकि परिणाम, संज्ञा, संख्या, आदिका भेद है । देव- पुरुषार्थ, पुण्य-पाप आदिको सिद्धि अनेकान्तके द्वारा हा होती है । एकान्तवादियोंकी समस्त सारस्यओंका उपाधाय कायके द्वारा प्रस्तुत किया
गया है ।
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इस स्तोत्रमें ११५ पद्य हैं। 'देवागम' पदद्वारा स्तोत्रका आरम्भ होनेके कारण यह 'देवागम' स्तोत्र भी कहा जाता है । समन्तभद्रकी परीक्षा प्रधान दृष्टि इस स्तोत्रकाव्य में समाहित है । कवित्वको दृष्टिसे यह काव्य बोझिल है । काव्य रस- दर्शनकी चट्टान के भीतर प्रवेश करनेपर ही क्वचित् प्राप्त होता है, अप्रस्तुत विधानका भी अभाव है। ओवन और जगत्की विभिन्न समस्याओं का समाधान इस स्तोत्रकाव्य में अवश्य वर्तमान है ।
४. युक्त्यनुशासन - वीरके सर्वोदय तीर्थंका महत्व प्रतिपादित करने के लिए उनको स्तुति की गयी है । युक्तिपूर्णक महावीरके शासनका मण्डन और विरुद्धमतोंका खण्डन किया गया है। समस्त जिनशासनको केवल ६४ पद्मों में ही समाविष्ट कर दिया है। अगौरवको दृष्टिसे यह काव्य उत्तम है, 'गागरमें सागर' को भर देनेकी कहावत चरितार्थ होती है। महावीरके तीर्थ को सर्वोदय ती' कहा है---
"सर्वान्तवत्तद् गुणमुख्य कल्पं सर्वान्तशून्यं च मियोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं सवेयं ॥
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१. देवम पद्य ७१,७२, बाचार्य जुगलकिशोर मुस्तार द्वारा सम्पादित, बीरसेवामन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी ।
२. सम्पादन आचार्य जुगलकिशोर, वीर सेवा नन्दिर प्रकाशन । ३. बही - ६२ ।
१९० खोयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा